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गोपीनाथ से मिलन

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ।।

यह लेख अपने गुरुदेव स्वामी श्री प्रबोधानन्द जी महाराज के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ।

भक्तों के जीवन में भगवान कुछ ना कुछ अनुभव कराते रहते हैं ऐसे ही कुछ अनुभव वृन्दा ने भी किया, वृन्दा बिहारी जी से प्रेम करती और अक्सर वृन्दावन में बांकेबिहारी के दर्शन करने बार बार जाया करती और उसको वृन्दावन जाना वहाँ घूमना बहुत अच्छा लगता ऐसे ही एक दिन वह घूमते-घूमते गोपीनाथ मंदिर में पहुँच गयी, वहाँ दीवारें और मंदिर कुछ बहुत जाना पहचाना सा लगा ,उसको लगा वो पहले भी यहाँ बहुत बार आ चुकी है जबकि वो पहली बार उस मंदिर में गयी थी शायद पिछले जन्म का कोई नाता था जो वो वहाँ महसूस कर रही थी । श्री वृंदावन धाम में सात ठाकुर प्रकट हुए हैं , गोपीनाथ भी उनमें से एक हैं ,यवनों के आक्रमण के बाद वृन्दावन के चार ठाकुर अलग-अलग जगह पहुंचा दिये गये जैसे श्री जुगलकिशोर पन्ना में, मदनमोहन करौली में, गोविंद देव जी जयपुर में और गोपीनाथ भी जयपुर पहुंचा दिये गये थे। राधारमण ,राधावल्लभ और बांकेबिहारी वृन्दावन में ही विराजित हैं ।

तो अब वृन्दा ने वृंदावन के गोपीनाथ मन्दिर को तो देखा पर अब उसको गोपीनाथ के दर्शन करने थे उसको वह अवसर भी मिला कुछ सालों बाद वह नये साल पर जयपुर पहुँची और गोपीनाथ के मन्दिर गयी और जब उसने गोपीनाथ को देखा वो देखती ही रह गयी। क्या देखा ये तो कहा नहीं जा सकता , ये तो बस वो जाने और गोपीनाथ जाने , वो तो एक तरफ स्तब्ध सी खड़ी हुई गोपीनाथ को देख रही थी बहुत देर देखने के बाद उसका ध्यान बाहर को आया पर वो गोपीनाथ को देख मुस्कुरा ही रही थी, वहाँ के पंडित उसको देख रहे थे,देख कर उसको अपने पास बुलाने का इशारा करते हैं वो समझ नहीं पाती, वो फिर दुबारा इशारा करते हैं वो इधर उधर देखती है उसको लगता है बुला रहे होंगे किसी को ,वो फिर गोपीनाथ को देखने लगती है,वो पंडित फिर से इशारा करते हैं वो भी इस बार इशारा करके पूछती है क्या मैं? वो इशारा करते हैं हाँ तुम, फिर वो उनके पास जाती है और वो पंडित जी एक बड़ा सा रुई का टुकड़ा जिसपर इत्र की सुगंध आ रही थी, जो गोपीनाथ के अंग से पुछा हुआ वो उसको दे देते हैं नए साल पर इससे बढ़कर और क्या उपहार हो सकता था ,वो फिर गोपीनाथ के सामने जाकर बैठ गयी जहां लोग भजन गा रहे थे और वो भी वहाँ बैठ कर भजन गाने लगी।

भगवान गीता में कहते हैं: ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।जो मुझे जैसे भजते हैं,  मैं उन पर वैसे ही अनुग्रह करता हूँ।।4.11 वृंदा ने उसी अनुग्रह का अनुभव किया…. मूर्ति मानोगे तो वो आपके लिये मूर्ति ही रहेंगे अगर मानोगे ये मूर्ति नहीं ये मेरे गोपीनाथ हैं …भगवान वैसे ही हो जायेंगे और अपना अनुभव भी करा देंगे, ऐसा हमने संतों के श्री मुख से सुना है। हमारे दादा बताते हैं: जिसको मन में है कि वो भगवान के दर्शन करने आया है उसको भगवान जरूर दिखते हैं।क्योंकि ये मन का विषय है,ज्ञान का विषय है,प्रेम का विषय है।क्योंकि दर्शन मन से होता है।

श्री राधे

KRSNADITI

मोर कुटी।Mor Kutir

यह लेख अपने प्यारे गुरुदेव स्वामी श्री प्रबोधानंद महाराज के श्री चरणों में समर्पित करती हूं ।

मोरकुटी बरसाना के गहवरवन में ब्रह्मांचल पर्वत पर स्थित है यहां पर बहुत सुंदर लीलाएं हुई हैं पर उससे पहले हम मान के बारे में बताना चाहते हैं :-भगवत प्रेम की एक विशेष अवस्था जिसमें भक्त ईश्वर के प्रति इतना प्रेम विकसित कर लेता है कि वह उसपर क्रोध करने का अधिकार भी प्राप्त कर लेता है। मान करने का अर्थ है रूठ जाना। जैसा हमने भक्तों के मुख से सुना है वैसा हम इस लेख में लिख रहे हैं।

एक बार श्यामसुंदर ने राधारानी को चंद्रमा की उपमा दी तो राधा रानी बोलती हैं क्या मैं चांद की तरह गोल हूँ ,मोटी हूँ? श्यामसुंदर बोले नहीं-नहीं मैं ऐसे नहीं कह रहा ।तो राधा रानीबोली क्या चांद की तरह मेरे ऊपर दाग है? श्यामसुंदर बोले नहीं मैं ऐसे भी नहीं कह रहा , तो मुझे चांद जैसा क्यों कहा? राधारानी गुस्सा होकर मानगढ़ चली गई श्यामसुंदर ने उनको बहुत मनाने की कोशिश की पर राधारानी मानी नहीं तो राधारानी को प्रसन्न करने के लिए श्यामसुंदर ऊपर मोरकुटी में गए जो मानगढ़ पर्वत के सामने ही है, वहां उन्होंने मयूर की तरह नृत्य किया यह देख राधारानी भी वहां आ गई और अद्भतु मयूर से आकर्षित होकर, श्रीराधा कहने लगीं, “अरे मयूर! ऐसा ही नृत्य तो हमारे प्यारे किया करते हैं।” यह सुन कर अपने मयूर रूप को छोडकर श्यामसुंदर बोले “मैं ही तो आपका प्यारा हूँ।” बस दोनों हंस गये और मिलन हो गया और दोनों ने ही मयूर नृत्य किया।नाचत श्याम मोरन संग मुदित ही श्याम रिहझावत, ऐसी कोकिला अलावत पपैया देत स्वर ऐसो मेघ गरज मृदंग बजावत... स्वामी हरिदास का यह पद श्याम सुंदर की मयूर लीला को दर्शाता है।

एक लीला यह भी है कि, गहवरवन के मोर वहां आते हैं तो किसी को किशोरी जी कहती हैं कि यह मेरा मोर है और किसी को कन्हैया कहते हैं कि वह मेरा मोर है। दोनों में होड़ लगती है कि किसका मोर अच्छा नाचेगा? किशोरी जी अपने मोर को नचाती हैं और कन्हैया अपने मोर को नचाते हैं।

एक बार राधारानी मोर देखने के लिए मोरकुटी पर पहुंची, लेकिन वहां एक भी मोर न दिखने पर वो मायूस हो गईं। किशोरी जी को मायूस देख खुद श्यामसुंदर मोर का रुप धारण कर नृत्य करते है। इस दौरान मोर को नाचता देख राधारानी उसे लड्डू खिलाती हैं तो तभी उनकी सखियां पहचान जाती है कि खुद श्याम सुंदर मयूर बन के आये हैं, कहती हैं राधा ने बुलायो कान्हा मोर बन आयो।

एक बार लीला करते हुए श्रीजी रूठ गयी और वो रूठ के मोर-कुटी पर जा के बैठ गयी और वहां एक मोर से लाड करने लगीं। जब हमारे कन्हैया उन्हें मनाने के लिए मोर-कुटी पर पधारे तो देखा कि राधे जू हमसे तो रूठ गयी और उस मोर से प्यार कर रही है। ठाकुर जी को उस मोर से ईर्ष्या होने लगी। वो राधारानी को मनाने लगे तो किशोरी जी ने ये शर्त रख दी कि कान्हा! मेरी नाराजगी तब दूर होगी जब तुम इस मोर को नृत्य प्रतियोगिता में हरा कर दिखाओगे। कन्हैया इस बात पर तैयार हो गए । जब राधारानी के सामने नाचने की बात हो तो कौन पीछे हटे।प्रतियोगिता प्रारंभ हुई, एक तरफ मोर और दूसरी ओर नन्दकिशोर। श्रीजी कन्हैया के नृत्य करने से प्रसन्न हो गई और अपना मान छोड़ दिया, सब यह जानते हैं कि भगवान को कोई भी नहीं हरा सकता पर किशोरी जी मोर को हारते हुए नहीं देखना चाहती थी, कन्हैया ने मोर को जिता दिया। हमारे गुरुदेव कहते हैं भक्त और भगवान की एक होड़ होती है जिसमें भगवान अपने भक्त को जिता देते हैं और खुद हार जाते हैं। हमने रमेश बाबा महाराज के श्री मुख से सुना है :सेवा ही तो प्रेम है। हमारे दादा भी बताते हैं: प्रेम का अर्थ है सेवा और समर्पण

इसी तरह से मोरकुटी पर कई मयूर लीलायें हुई हैं।यहां एक लीला के दर्शन राधारानी ने कृपा करके एक भक्त को दिखायी ,जिनके स्थूल नेत्र नहीं थे पर जिस पर राधारानी कृपा करें ,वह क्या कुछ नहीं कर सकता तो उन्होंने उस भक्त को वह लीला दिखाई जिसमें राधा- कृष्ण मोर बनकर नृत्य कर रहे हैं, उन भक्त ने फिर वह चित्र बनाया जो आज भी मंदिर में रखा हुआ है। लोगों का मानना है कि मोर कुटी पर कन्हैया आज भी मोर बनकर नाचते हैं।

श्री राधे

KRSNADITI

भक्त अपराध

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ।।

यह लेख अपने गुरुदेव स्वामी श्री प्रबोधानन्द जी महाराज के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ और धन्यवाद करती हूँ अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी का जिन्होंने हमारा इस लेख में सहयोग किया है।

साधक को किसी से भी नहीं डरना चाहिए पर एक भक्त अपराध से उसको हमेशा जरूर डरना चाहिए और सतर्क रहना चाहिए चैतन्य चरितामृत में आता है “वैष्णव-अपराध एक नशे में धुत हाथी की तरह है। यह भक्ति रूपी लता को जड़ से उखाड़ देता है और उसके पत्तों को सुखा डालता है। “कभी-कभी लोगों को भजन में आनंद नहीं होता है कोई कमी सी लगती है उसका कारण भक्त अपराध भी हो सकता है।

भक्त अपराध क्या होता है?जब कोई किसी भक्त को दुःख देता है, अपमान करता है, निंदा करता है, दुर्व्यवहार करता है तो यह उस भक्त के प्रति अपराध हो जाता है।अपराध तीन प्रकार से होता है मन से, शब्दों से और शरीर से।

हरि भक्ति विलास का कथन हैं कि किसी वैष्णव के प्रति द्वेष रखने, क्रोध करने, उसका अनादर करने, उसकी निन्दा करने, उस पर प्रहार करने, या उसे देखकर हर्ष न प्रकाश करने से पतन होता है- हन्ति निन्दति वै द्वेष्टि वैष्णवान्नाभिनन्दति। क्रुद्यते याति नो हर्ष दर्शन पतनादि षट्॥

वैष्णव-अपराध से भगवान को दु:ख होता है और अपराध करने वाला भक्त हो तो भी यमपुर जाता है, ऐसा सूरदास जी ने कहा है-भक्त अपराधे हरि दु:ख पइ हैं।सूरदास भगवन्त बदत यों मोहि भजत ते यमपुर जइहैं॥वैष्णव-अपराध से रक्षा करने की सामर्थ्य स्वयं भगवान में भी नहीं है. जिसके प्रति वैष्णव-अपराध हो वही जब तक क्षमा न करे तब तक भीषण परिणाम से रक्षा पाने का कोई उपाय नहीं। एक प्रसंग श्रीमद्भागवत में आता है और हमारे गुरुदेव भी हमको सुनाया करते थे:

राजा अम्बरीष भगवान के विशुद्ध प्रेमी भक्त थे एक बार उन्होंने एक वर्ष तक द्वादशी प्रधान एकादशी-व्रत करने का नियम ग्रहण किया। व्रत की समाप्ति होने पर राजा ने व्रत का पारण करने की तैयारी की। उसी समय स्वयं दुर्वासाजी भी उनके यहाँ अतिथि के रूप में पधारे।राजा अम्बरीष उन्हें देखते ही उठकर खड़े हो गये, आसन देकर बैठाया और विविध सामग्रियों से उनके चरणों में प्रणाम करके भोजन के लिए प्रार्थना की। दुर्वासाजी ने राजा अम्बरीष की प्रार्थना स्वीकार कर ली और इसके बाद आवश्यक कर्मों से निवृत होने के लिए वे नदीतट पर चले गये। वे ब्रह्म का ध्यान करते हुए यमुना के पवित्र जल में स्नान करने लगे। इधर द्वादशी केवल घड़ी भर शेष रह गयी थी। धर्मज्ञ अम्बरीष ने धर्म-संकट में पड़कर ब्राह्मणों के साथ परामर्श किया। उन्होंने कहा- ‘ब्राह्मण देवताओं! ब्राह्मण को बिना भोजन कराये स्वयं खा लेना और द्वादशी रहते पारण न करना, दोनों ही दोष हैं। इसलिए इस समय जैसा करने से मेरी भलाई हो और मुझे पाप न लगे, ऐसा काम करना चाहिये। तब ब्राह्मणों के साथ विचार करके उन्होंने कहा- ‘ब्राह्मणों! श्रुतियों में ऐसा कहा गया है कि जल पी लेना भोजन करना भी है, नहीं भी करना है। इसलिए इस समय केवल जल से पारण किये लेता हूँ।‘ ऐसा निश्चय करके मन-ही-मन भगवान का चिन्तन करते हुए राजर्षि अम्बरीष ने जल पी लिया और फिर दुर्वासाजी के आने की बाट देखने लगे।

दुर्वासाजी आवश्यक कर्मों से निवृत होकर यमुनातट से लौट आये। जब राजा ने आगे बढ़कर उनका अभिनन्दन किया तब उन्होंने अनुमान से ही समझ लिया कि राजा ने पारण कर लिया है। उस समय दुर्वासाजी बहुत भूखे थे। वे क्रोध से थर-थर काँपने लगे। उन्होंने हाथ जोड़कर खड़े अम्बरीष से डाँटकर कहा – ‘मुझे खिलाये बिना ही कैसे खा लिया है। अच्छा देख, ‘तुझे अभी इसका फल चखाता हूँ। यों कहते-कहते वे क्रोध से जल उठे। उन्होंने अपनी एक जटा उखाड़ी और उससे अम्बरीष को मार डालने के लिए एक कृत्या (राक्षसी) उत्पन्न की। वह आग के समान जलती हुई, हाथ में तलवार लेकर राजा अम्बरीष पर टूट पड़ी।
परमपुरुष परमात्मा ने अपने सेवक की रक्षा के लिये पहले से ही सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर रखा था। जैसे आग क्रोध से गुर्राते हुए साँप को भस्म कर देती है, वैसे ही चक्र ने दुर्वासा जी की कृत्या को जलाकर ढ़ेर कर दिया। जब दुर्वासा जी ने देखा कि मेरी बनायी हुई कृत्या तो जल रही है और चक्र मेरी ओर आ रहा है, तब वे भयभीत हो अपने प्राण बचाने के लिये जी छोड़कर एकाएक भाग निकले।तब दुर्वासा जी दिशा, आकाश पृथ्वी, अतल-वितल आदि नीचे के लोक, समुद्र, लोकपाल और उनके द्वारा सुरक्षित लोक एवं स्वर्गतक में गये, परन्तु जहाँ-जहाँ वे गये, वहीं-वहीं उन्होंने असह्य तेज-वाले सुदर्शन चक्र को अपने पीछे लगा देखा। जब उन्हें कहीं भी कोई रक्षक न मिला तब तो वे और डर गये। अपने प्राण बचाने के लिये वे देवशिरोमणि ब्रह्माजी के पास गये और बोले ‘ब्रह्माजी! आप स्वयम्भू हैं। भगवान् के इस तेजोमय चक्र से मेरी रक्षा कीजिये’। ब्रह्माजी ने कहा- ‘दुर्वासा जी! मैं, शंकरजी, दक्ष-भृगु आदि प्रजापति, भूतेश्वर आदि सब जिनके बनाये नियमों में बंधे हैं तथा जिनकी आज्ञा शिरोधार्य करके हमलोग संसार का हित करते हैं उनके भक्त के द्रोही को बचाने में हम समर्थ नहीं हैं।‘जब ब्रह्माजी ने इस प्रकार दुर्वासा को निराश कर दिया, तब भगवान के चक्र से संतप्त होकर वे कैलाशवासी भगवान् शंकर की शरण में गये। शंकर जी ने कहा- ‘दुर्वासाजी! जिनसे पैदा हुए अनेकों ब्रह्माण्डों में हमारे जैसे हजारों चक्कर काटते हैं यह चक्र उन्हीं विश्वेश्वर का शस्त्र है। यह हमलोगों के लिए असह है। तुम उन्हीं की शरण में जाओ। वे भगवान ही तुम्हारा मंगल करेंगे।‘ निराश होकर दुर्वासाजी श्रीहरि भगवान के परमधाम वैकुण्ठ की तरफ भागेे। दुर्वासाजी भगवान के चक्र की आग से जल रहे थे। वे भगवान के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने कहा-‘हे अच्युत! हे अनन्त! आप सन्तों के एकमात्र इच्छित हैं। प्रभो! सम्पूर्ण जगत के जीवनदाता! मैं अपराधी हूँ। आप मेरी रक्षा कीजिये। आपका परम प्रभाव न जानने के कारण ही मैंने आपके प्यारे भक्त का अपराध किया है। प्रभो! आप मुझे बचाईये।‘ श्री भगवान ने कहा-‘दुर्वासाजी! मैं सर्वथा भक्तों के अधीन हूँ। मुझमें तनिक भी स्वतंन्त्रता नहीं है। जो भक्त स्त्री, पुत्र, गृह, गुरुजन, प्राण धन इहलोक और परलोक-सबको छोड़कर केवल मेरी शरण में आ गये हैं, उन्हें छोड़ने का संकल्प भी मैं कैसे कर सकता हूँ? इसमें सन्देह नहीं कि ब्रांह्मणों के लिये तपस्या और विद्या परम कल्याण के साधन हैं। परन्तु यदि ब्राह्मण उदृण्ड और अन्यायी हो जाय तो वे ही दोनों उलटा फल देने लगते हैं। दुर्वासाजी! सुनिए, मैं आपको एक उपाय बताता हूँ। जिसका अनिष्ट करने से आपको इस विपत्ति में आना पड़ा है, आप उसी के पास जाईये। उनसे क्षमा माँगिये तब आपको शान्ति मिलेगी।‘सुदर्शन चक्र की ज्वाला से जलते हुए दुर्वासा लौटकर राजा अम्बरीष के पास आये और उन्होंने अत्यन्त दुःखी होकर राजा के पैर पकड़ लिये। दुर्वासाजी की यह चेष्टा देखकर और उनके चरण पकड़ने से लज्जित होकर राजा अम्बरीष भगवान् के चक्र की स्तुति करने लगे।जब राजा अम्बरीष ने दुर्वासा जी को सब ओर से जलाने वाले भगवान् के सुदर्शन चक्र की इस प्रकार स्तुति की, तब उनकी प्रार्थना से चक्र शान्त हो गया। जब दुर्वासा चक्र की आग से मुक्त हो गये और उनका चित्त स्वस्थ हो गया, तब वे राजा अम्बरीष को अनेकानेक उत्तम आशीर्वाद देते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे। दुर्वासा जी ने कहा- धन्य है! आज मैंने भगवान् के प्रेमी भक्तों का महत्त्व देखा। राजन्! मैंने आपका अपराध किया, फिर भी आप मेरे लिये मंगल-कामना ही कर रहे हैं। महाराज अम्बरीष! आपका हृदय करुणा भाव से परिपूर्ण है। आपने मेरे ऊपर महान अनुग्रह किया। अहो, आपने मेरे अपराध भुलाकर मेरी रक्षा की है!

जन्म प्रभृति यत्किंचित सुक्रतम् समुपार्जितम्।
नाशमायाति तत्सर्वम् पीड़येदा यदि वैष्णवान्।। (स्कंद पुराण)अर्थात- जो मनुष्य वैष्णवों को कष्ट देते हैं उनके जन्मार्जित सारे पुण्य नष्ट हो जाते हैं।

पूजितै भगवान् विष्णुर्जन्मांतर शनैरपि।
प्रसीदति न विश्वात्मा वैष्णवे चावमानिते।। (श्रीमद्भागवत)अर्थात जो मानव वैष्णव का अपमान करता है, उसके प्रति भगवान कभी प्रसन्न नहीं होते हैं। अब यह समझना चाहिए कि वैष्णव अपराध कितना खतरनाक है। यदि वैष्णव अपराध बन जाता है, तो जीव चाहे जितना भी भजन क्यों न कर ले, कितना भी साधन क्यों न कर ले, किसी भी प्रकार से भक्ति पथ पर थोड़ा भी अग्रसर नहीं हो सकता।

जो मनुष्य वैष्णवों को कष्ट देते हैं उनके जन्मार्जित सारे पुण्य नष्ट हो जाते है। केवल मुंह से वैष्णव निंदा करने से ही वैष्णव अपराध होगा ऐसा नहीं है। यदि किसी ने वैष्णवों की निंदा की और हम केवल “हां” में या “ठीक है” इत्यादि शब्दों से समर्थन करते हैं। तो उस निंदा का फल हमें भी संपूर्ण रूप से भोगना पड़ेगा।

निंदा कुर्वन्ति ये मूढ़ा वैष्णवानाम महात्मानाम्।
पतन्ति पितृभिः सार्दाम् महासैरवे संस्थिते।। ( स्कंद पुराण)अर्थात – जो मूढ बुद्धि व्यक्ति वैष्णव की निंदा करता है वह पितृ कुल सहित “रौरव नरक” में पतित होता है। [रौरव ] हिन्दू मान्यताओं तथा धार्मिक ग्रंथों के अनुसार भूमि के नीचे जो पाँच भयानक नरक हैं, उनमें से एक है।

कभी-कभी ऐसा भी होता है आप किसी भक्त से बात कर रहे हो और वो आपसे दूसरे भक्त की निंदा करने लगे तो समझ नहीं आता क्या करें ऐसे में,क्योंकि कभी ऐसी परिस्थिति भी हो जाती है जिसकी निंदा हो रही हो उसकी सुन नहीं सकते और जो निंदा कर रहा हो उसको कुछ कह नहीं सकते तो बहाना लगाकर वहाँ से निकल जाना चाहिये क्योंकि जाने -अनजाने में अपराध हो सकता है और कोई गलती ना होने पर भी आपको अपराध लग सकता है इसलिए वहाँ से अपने को हटा लेना चाहिये और प्रार्थना कर लेनी चाहिये,सभी साधु ,संतजन, गुरुजन ,वैष्णवजन,भक्तों महात्मा को मेरा प्रणाम, आप तो कृपामूर्ति हैं ,क्षमामूर्ति हैं ,अगर जाने-अनजाने हमसे कभी कोई अपराध हुआ हो तो हमको क्षमा करें।

कभी-कभी अनजाने में भी भक्त अपराध हो जाता है।एक प्रसंग आता है:श्री रूप गोस्वामी जी पर राधाकृष्ण की कृपा की वृष्टि जब निरन्तर होने लगी, उन्हें प्राय: हर समय उनकी मधुर लीलाओं की स्फूर्ति होती रहती और वो लीला दर्शन करते रहते।

एक बार कृष्णदास नाम के एक विशिष्ट वैष्णव-भक्त, जो पैर से लंगड़े थे, उनके पास आये कुछ सत्संग के लिए। उस समय वे राधा कृष्ण की एक दिव्य लीला के दर्शन कर रहे थे। राधा एक वृक्ष की डाल से पुष्प तोड़ने की चेष्टा कर रही थीं।डाल कुछ ऊँची थी, वे उचक-उचक कर उसे पकड़ना चाह रही थीं, पर वह हाथ में नहीं आ रही थी।श्यामसुन्दर दूर से देख रहे थे। वे आये चुपके से और राधारानी के पीछे से डाल को पकड़कर धीरे-धीरे इतना नीचा कर दिया कि वह उनकी पकड़ में आ जाय। उन्होंने जैसे ही डाल पकड़ी श्यामसुन्दर ने उसे छोड़ दिया, राधारानी वृक्ष से लटक कर रह गयीं,यह देख रूप गोस्वामी को हंसी आ गयी। कृष्णदास समझे कि वे उनका लंगड़ापन देखकर हंस दिये। क्रुद्ध हो वे तत्काल वहाँ से गये ।रूप गोस्वामी को इसका कुछ भी पता नहीं।अकस्मात उनकी लीला-स्फूर्ति बन्द हो गयी, वे बहुत चेष्टा करते तो भी दर्शन नहीं होते। लीला-दर्शन बिना उनके प्राण छट-पट करने लगे, पर इसका कारण वे न समझ सके, सनातन गोस्वामी के पास जाकर उन्होंने अपनी व्यथा का वर्णन किया और इसका कारण जानना चाहा।
उन्होंने कहा- ‘तुम से जाने या अनजाने कोई वैष्णव-अपराध हुआ हैं, जिसके कारण लीला-स्फूर्ति बन्द हो गयी हैं. जिनके प्रति अपराध हुआ है, उनसे क्षमा मांगने से ही इसका निराकरण हो सकता है।’ रूप गोस्वामी ने पूछा- ‘जान-बूझकर तो मैंने कोई अपराध किया नहीं. यदि अनजाने किसी प्रति कोई अपराध हो गया हैं, तो उसका अनुसन्धान कैसे हो?’

सनातन गोस्वामी ने परामर्श दिया- ‘तुम वैष्णव-सेवा का आयोजन कर स्थानीय सब वैष्णवों को निमन्त्रण दो।यदि कोई वैष्णव निमन्त्रण स्वीकार न कर सका, तो जानना कि उसी के प्रति अपराध हुआ है’। रूप गोस्वामी ने ऐसा ही किया, कृष्णदास बाबा ने निमन्त्रण स्वीकार नहीं किया. जो व्यक्ति निमन्त्रण देने भेजा गया था, उससे उन्होंने रूप गोस्वामी के प्रति क्रोध व्यक्त करते हुए उस दिन की घटना का वर्णन किया,रूप गोस्वामी ने जाकर उनसे क्षमा माँगी और उस दिन की अपनी हंसी का कारण बताया तब बाबा संतुष्ट हुए और रूप गोस्वामी की लीला-स्फूर्ति फिर से होने लगी।

कभी किसी साधु,भक्त,संत,गुरुजनों का अपराध नहीं करना चाहिए रावण ने भी विभीषण जी को अपमानित कर राज्य से निकाल दिया था और अभागा हो गया था ।रामचरितमानस में आता है : अस कहि चला बिभीषनु जबहीं ।
आयूहीन भए सब तबहीं ॥
साधु अवग्या तुरत भवानी ।
कर कल्यान अखिल कै हानी ॥1॥ रावन जबहिं बिभीषन त्यागा ।
भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा ॥
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं ।
करत मनोरथ बहु मन माहीं ॥2॥(सुन्दरकांड 42)

ऐसा कहकर विभीषणजी ज्यों ही चले, त्यों ही सब राक्षस आयुहीन हो गए। (उनकी मृत्यु निश्चित हो गई)। (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! साधु का अपमान तुरंत ही संपूर्ण कल्याण की हानि (नाश) कर देता है॥1॥रावण ने जिस क्षण विभीषण को त्यागा, उसी क्षण वह अभागा वैभव (ऐश्वर्य) से हीन हो गया। विभीषणजी हर्षित होकर मन में अनेकों मनोरथ करते हुए श्री रघुनाथजी के पास चले॥2॥

साधु-संतों, भक्तों ,गुरुजनों के बीच में रहकर उनमें कमियाँ नहीं देखनी चाहिए , उनकी बात माननी चाहिए, कमियाँ देखने से अपराध लगता है और भजन में वो रस नहीं आता है ।

श्री राधे

KRSNADITI

सगुण मानने से ब्रह्म सीमित नहीं होता।

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ।।

यह लेख अपने पूज्य गुरुदेव स्वामी श्री प्रबोधानन्द जी महाराज के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ और धन्यवाद करती हूँ अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी का जिन्होंने मुझको यह विषय समझाया है,जिसको इस लेख में लिखा गया है।

दादा बताते हैं: भगवान ने सबको स्वतंत्र इच्छा शक्ति दी है जो निर्गुण उपासक हो वो निर्गुण को माने,वो सगुण उपासक हैं वो सगुण को माने ।दोनों उसी के रूप है पर वेदांत ग्रंथ में अद्वैत की भावना होती हैं वहाँ वो अवतारवाद आदि को मानते नहीं हैं अब भगवान कृष्ण तो पूर्ण पुरुषोत्तम है ,अखंड है,अनादि है असीम है। गोविन्दम् आदि पुरुषं तम् अहं भजामि।ब्रम्ह संहिता। अब मानो एक आम का बहुत बड़ा पेड़ है उसमें से तना काट कर मेज बना दी जाय तो आम से अलग होकर मेज सीमित हो गयी ऐसे करके कोई लोग तर्क करते हैं अलग उस ब्रह्म को,सर्वोच्च सत्ता को एक देह में सीमित कर देंगे तो उसका जो असीमपना है वो बाधित हो जाता है।एक तमिलनाडु में सन्त हुए हैं वो भी अद्वैत वेदांत को मानने वाले थे उनका एक दृष्टिकोण हओ तो वो कहते हैं जैसे एक व्यक्ति है सीमित है उसने अपनी मन और बुद्धि के अनुसार भगवान को सीमित कर दिया ये दृष्टिकोण ठीक नहीं है,व्यक्ति ने जो कल्पना कर रखी है मैं ये हूँ,मैं वो हूँ ये तो जब देह में व्यक्ति की मैं बुद्धि कट जाती है और अगर इस बात कोई भी व्यक्ति सही समझ जायें तो वो अपने को असीम मानेगा तो क्या वो किसी और को सीमित मानेगा? नहीं उसकी नजर में फिर सब असीम ही होगा भगवान भी उनके अवतार भी और भगवान का अवतार कोई साधारण नहीं होता है ।गीता में भगवान कहते है ।अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।।7.24।बुद्धिहीन मनुष्य मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी परमभावको न जानते हुए अव्यक्त (मनइन्द्रियोंसे पर) मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्माको मनुष्यकी तरह ही शरीर धारण करनेवाला मानते हैं।7.24।।भगवान ने अपना संपूर्ण ज्ञान जो कुछ भी है जीव को दिया है और स्वतन्त्रता दे दी है खूब समझ लो उसके बाद जो ठीक लगे वो तुम करो। इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।18.63।।यह गुह्यसे भी गुह्यतर (शरणागतिरूप) ज्ञान मैंने तुझे कह दिया। अब तू इसपर अच्छी तरहसे विचार करके जैसा चाहता है? वैसा कर।18.63।।

उन सन्त ने कहा जो असीम है, निर्गुण है,अखंड है,अनंत है भक्तों पर कृपा करने के लिये सगुण रूप धारण कर लेता है अन्यथा भगवान की महिमा घट जायेगी। हरि व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम ते प्रकट होहिं मैं जाना।देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥भावार्थ-मैं तो यह जानता हूँ कि भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं, प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं, देश, काल, दिशा, विदिशा में बताओ, ऐसी जगह कहाँ है, जहाँ प्रभु न हों।अगर भगवान भक्तों के दुख परेशानी को समस्याओं को ना देखें तो ऐसा परमात्मा किस दीन का? कृपा की जो होती ना आदत तुम्हारी तो सूनी ही रहती अदालत तुम्हारी।इसलिये कुछ आचार्यों ने माना है कि ये ब्रह्म भक्तों पर कृपा करने,उनका दुख दर्द समझने,उनकी सहायता करने,अपना बोध कराने के लिये, वो सर्वशक्तिमान है अपनी शक्ति का परिचय कराने के लिये को सगुण रूप में प्रकट होता है।वो किसी भी रूप में,किसी भी काल में,किसी भी परिस्थिति में,किसी भी देश में प्रकट होके आ सकते हैं उनमें सामर्थ्य है और तब भी वो असीम ही रहते हैं।अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।।7.24।बुद्धिहीन मनुष्य मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी परमभावको न जानते हुए अव्यक्त (मनइन्द्रियोंसे पर) मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्माको मनुष्यकी तरह ही शरीर धारण करनेवाला मानते हैं।7.24।। नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।7.25।।जो मूढ़ मनुष्य मेरेको अज और अविनाशी ठीक तरहसे नहीं जानते (मानते) उन सबके सामने योगमायासे अच्छी तरहसे आवृत हुआ मैं प्रकट नहीं होता।।।7.25।।व्यक्ति देह में मैं बुद्धि करके अपने निर्णय करता है और भगवान को भी सीमित कर देता है।

तमिल सन्त का कहना है आप भगवान के साथ तीन व्यवहार जरूर करो। 1. राग 2.श्रिंगार 3.भोग। अगर आपको भक्ति करनी है,प्रेम करना है ,सगुण-निर्गुण दोनों को सही-सही रूप से जानना है तो ये तीन व्यवहार भगवान से करने पर सगुण-निर्गुण जैसा है वैसा समझ आने लगेगा। उन सन्त ने श्रिंगार पर ज्यादा जोर दिया जब भक्त भगवान को सजाता है तब भगवान उसके हृदय में आते हैं, तब कल्पना करता है ऐसे सजायेंगे,ये मोरपंख लगायेंगे,कान के पीछे फूल लगायेंगे,कोशिश करता है भगवान सुन्दर से सुन्दर लगें, ऐसे भगवान उसके पहले हृदय में आते हैं जब सजाने के बाद वो श्रिंगार का जब अवलोकन करता है कि प्रभु कैसे लग रहे हैं तो भक्त भगवान की तरफ आकर्षित होता है और कहता है क्या लग रहे हो आज, दिने दिने नवं नवं।उस वक्त भगवान अच्छे लग रहे होते हैं ये स्थिति परमात्मा की तरफ से आती है,भगवान फिर भक्त की तरफ आकर्षित होते हैं वो भक्त के हृदय रूपी आईने में अपने को देखते हैं।

अब बात करते हैं भोग की ,जब भगवान को भोग लगता है तो प्रभु तो सर्वेश्वर हैं,सर्वज्ञ हैं,अन्तर्यामी हैं और पूर्णकाम हैं अर्थात कोई कामना नहीं है,पूर्ण तृप्ति है उनको लेकिन फिर भी भक्त उनकी तरफ आकर्षित होकर भोग लगाता है जैसे एक छोटा सा बच्चा है उसके पिता ने उसको टॉफी लाके दी है वो पैकिट खोलता है अपने पिता के मुख में डाल देता है तो क्या पिता को उसकी टॉफी चाहिये क्या ? वो तो प्रेमवश खा लेते हैं और द्रवित हो जाते हैं और मुस्कुरा देते हैं ,भगवान को जगतपिता हैं ऐसे ही भक्त जब भगवान को भोग लगाता है तो भगवान उसके हृदय में आकर जरूर बैठते हैं जब वो प्रार्थना करता है भगवान के हृदय में भक्त बैठ जाता है,भगवान आकर्षित हो जाते हैं।

तीसरा होता है राग यानि संगीत से प्रभु को रिझाना, जिसने उसको पाया उसने गाया। भजन ,कीर्तन जब गाने बैठते है तो वो रूप,गुण, प्रभु पहले हृदय में आते हैं फिर भजन और कीर्तन गाया तो पहले भगवान भक्त के हृदय में आये और फिर भगवान के हृदय में भक्त आके बैठ जाता है। स्वामी विवेकानंद जी भी अद्वैत वेदांत को मानने वाले थे पर वो भी राग बहुत करते,बहुत सुन्दर गाते ,जब पहली बार वो रामकृष्ण परमहंस जी से मिले तो उन्होंने उनको गाने को बोला जैसे ही उन्होंने गाया रामकृष्ण परमहंस जी समाधि लग गयी,तबसे उनको रोज आने को बोला और वो नरेंद्र से वो स्वामी विवेकानंद हो गये ।

हमारे गुरुदेव हमको बताते : “सगुण उपासक को निर्गुण का ज्ञान सहज ही हो जाता है निर्गुण को सगुण भक्ति का होना सहज नहीं होता।”

रामचरित मानस में आता है: निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोई। सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होई॥ 73 ख॥  निर्गुण रूप अत्यंत सुलभ (सहज ही समझ में आ जाने वाला) है, परंतु (गुणातीत दिव्य) सगुण रूप को कोई नहीं जानता, इसलिए उन सगुण भगवान के अनेक प्रकार के सुगम और अगम चरित्रों को सुनकर मुनियों के भी मन को भ्रम हो जाता है॥ 73 (ख)॥  जिसको जो कोई मार्ग अच्छा लगे पर सम्बन्ध भगवान से हो नाते नेह राम के मनियत। राम जी के नाते से कैसे भी कोई भी सम्बन्ध बनायें सब ठीक है ।जिसकी रुचि, योग्यता, विश्वास निर्गुणमें है, उसके लिये निर्गुणरूप सुलभ है । जिसकी रुचि, विश्वास, योग्यता सगुणमें है, उसके लिये सगुण सुलभ है ।एक रूपकी प्राप्ति होनेपर दोनोंकी ही प्राप्ति हो जाती है, फिर कोई-सा भी रूप जानना बाकी नहीं रहता; क्योंकि दोनोंका तत्त्व एक ही है और असीम हैं।

श्री राधे🙏

प्रबोधसुधा वर्षण

गुरु का संग शाश्वत

अखंडानंदबोधाय शिष्यसंतापहारिणे।सच्चिदानंदरुपाय, रामाय गुरुवे नम: ।।

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ।।

यह लेख अपने प्यारे गुरुदेव स्वामी श्री प्रबोधानन्द महाराज जी के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ।जैसे भी टूटे-फूटे शब्द आते हैं उनसे अपनी बात यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ।

सागर से भी गहरा बन्दे गुरुदेव का प्यार है ।जी हाँ गुरुदेव प्रेम का समुद्र हैं,जिनका प्रेम असीम होता है और जो उस प्रेम समुद्र में गोते लगाता है उसको कहा नहीं जा सकता। एक माता-पिता अपने बच्चे को सबसे ज्यादा प्रेम करते हैं पर गुरुदेव का प्रेम जो होता है उसके प्रेम के सामने सबका प्रेम फीका ही होता है, माता-पिता एक जन्म के माता-पिता और गुरुदेव जन्म-जन्म के माता-पिता होते हैं,उनसे जो सम्बन्ध होता है वो शाश्वत होता है।उनका जो साथ होता है उसके सामने तो तीनों लोकों की सम्पत्ति भी तुच्छ होती है।उनका लाड-प्यार, उनका स्पर्श,उनका प्रेम भरी नजरों से शिष्य को देखना, उनका माथे पर हाथ रखना, उनका मुस्कुरा देना, बिन बोले आपकी बात समझ लेना, वो दोस्त भी बन जाते हैं जिनसे आप अपनी सब बात कह देते हो,वो सब बातें आपकी प्रेम से सुन लेते हैं और जब वो आपसे प्रसन्न होते हैं तो वो गूढ़ रहस्य भी बता देते हैं,परम हितैषी, जिनके चरणों में होते हैं तीर्थ-धाम सारे, कुछ समझाना हो तो प्रेम से समझा देते हैं ,बच्चों के साथ बच्चे,बड़ों के साथ बड़े,गम्भीर के साथ गम्भीर हो जाते हैं,सबके साथ समभाव। जैसे एक बच्चे को एक माता-पिता बहुत ज्यादा प्रेम करते हैं वैसे ही गुरुदेव अपने शिष्य को बहुत प्रेम करते हैं जिसकी कोई सीमा ना हो और कोई भी उनके बच्चे को वैसे रख नहीं सकता, जैसे वो रखते हैं और कोई रख सकता है तो यह बहुत दुर्लभ बात है। दो चीजें होती है एक वाणी और एक वपु ।वाणी रूप से हमेशा हमारे गुरुदेव साथ रहते हैं और वपु यानि शारीरिक उपस्थिति।दादा बताते हैं: वो ही परमात्मा सगुण रूप लेकर हमारे गुरुदेव के रूप में आते हैं ,वो शरीर नहीं होते हैं। लोगों का कल्याण करने अवतरित होके आते हैं।पर जब वो ही गुरुदेव अप्रकट होते हैं उनके शिष्यों की जान ही निकल जाती है बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं।संतों का बिछुड़ना मरने के समान दुःखदायी होता है। वो विरह सहन करना बहुत मुश्किल हो जाता है।उनकी बातें, उनका दुलार प्यार सब बहुत याद आता है, हर कोई तो मन की बात नहीं समझता ना,वो लड़ता है भगवान से तूने हमारे गुरुदेव हमसे क्यों छीन लिये, हर सब सन्तों में अपने गुरुदेव को देखने की कोशिश करता है। शिष्य किसको अपनी बात बोले ,उसके प्रश्न कैसे हल हों वो इधर-उधर देखता है पर जब कोई बताने वाला नहीं दिखता तो वो उन्हीं गुरुदेव के चित्र के सामने किताब रख देता है गुरुदेव आ नहीं रहा बोलकर ,जिज्ञासा होती है जानने की,गुरुदेव कृपा करते हैं और किसी ना किसी रूप में आ जाते हैं। गुरुदेव कहा करते हमको :कोई बात हो ना अपने अनुभव से सम्बन्धित,कुछ पूछना हो तो गुरूजनों से कह देना चाहिये ,वो उसमें संशोधन कर देते हैं। अब किसको पूछे?हर किसी से नहीं कह सकते हैं और गुरुदेव तो प्रकट नहीं हैं बताने के लिये ,तो हमको अपने गुरुदेव पर विश्वास रखना चाहिये और उन्हीं पर सब छोड़ देना चाहिये।वो सब जानते हैं बिन बोलियां सब कुछ जानता। ये इसलिये नहीं कह रही कि उत्तर नहीं मिल रहे तो गुरुदेव की याद आती है ऐसा बिल्कुल नहीं है, प्रेम करने की कभी कोई वजह नहीं होती है।गुरु तो हमेशा साथ होते हैं, हर दुख-सुख में साथ होते हैं ,शिष्य की आत्मा होते हैं, शिष्य से अभिन्न होते हैं ,उनका संग शाश्वत होता है चाहे उनकी शारिरिक उपस्थिति हो या नहीं वो हमेशा साथ हैं।

एक प्रसंग बताते हैं : एक शिष्य अपने गुरुदेव से बहुत प्रेम करता और उसके गुरुदेव भी उसको बहुत लाड प्यार करते पर एक दिन उसके गुरुदेव का तिरोभाव हो गया , शिष्य से ये विरह सहा नहीं जा रहा था ,वो समान्य नहीं हो पा रहा था ,उसके लिये उसके गुरुदेव ही सब कुछ थे। एक दिन जब उससे वो विरह जब बर्दाश्त के बाहर हो गया तब वो अपने घर के एक कमरे में गया, उसको विरह सहन करने से आसान मरना लगा,फाँसी लगा के लटक नहीं सकता था भारी शरीर का था,कुछ और सूझा नहीं , तो उसने एक कपड़ा लिया और अपने गले में कस के बाँधा उसको कुछ नहीं हुआ,उसने और कसा उसको फिर कुछ नहीं हुआ, वो सोचे कुछ हो क्यों नहीं रहा ,उसने और कसा जितना जोर लगा सकता था फिर भी उसको कुछ भी नहीं हो रहा था अब वो बहुत देर तक गले में कपड़ा बाँधे बैठा रहा उसको कुछ नहीं हुआ बस वो रोता जा रहा था ,सोच रहा मैं तो मर भी नहीं पा रहा तभी उसको उसके गुरुदेव की अवाज सुनाई पड़ी ये क्या कर रहा है तुझे अभी बहुत कुछ करना है तू मेरे लिये अपना जीवन जी,प्रभु कृष्ण के लिये जीवन जियो।ऐसे उसके गुरुदेव ने उसकी जान बचायी, अरे गुरुदेव कोई शरीर नहीं हैं वो हमेशा अंग-संग रहते हैं। सदा रक्षा करते हैं। हमको हर प्रकार से उनके जिम्मे पड़ जाना चाहिये। आप याद करते हो तो वो भी याद करते हैं या ऐसे बोल लो वो याद करते हैं आपको तब उनकी याद आती है।

गुरुदेव बताया करते हमको :अर बरात मिलवे को निसि दिन, मिलत रहत जाने कबहु मिले ना।मिले भी रहते हैं और ऐसा लगता है कभी नहीं मिले ये भक्ति का सूत्र है । ये जो गुरु शिष्य का नाता है वो काल से परे ,शरीर से परे होता है।भगवान ही हमारे जीवन में गुरुदेव बन कर आते हैं ।

दादा बताते हैं: “गुरुदेव सशरीर होते हैं तो सीमित होते है ,एक ही जगह प्रकट होकर दिखायी देते हैं जब वो भी लीला समेट लेते हैं तो वो भी असीम होते हैं,तब हर जगह प्रकट हैं।” जहाँ शिष्य ने पुकारा गुरुदेव वहीं उसके पास ही होते हैं।ये जो गुरु और शिष्य का संग है यह शाश्वत है।

श्री राधे

KRSNADITI

क्या सत्य क्या मिथ्या

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ।।

यह लेख अपने गुरुदेव के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ और धन्यवाद करती हूँ अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी का जिन्होंने मुझको यह विषय समझाया हैं।

हमने अपने दादा से पूछा: याज्ञवल्क्य जी कहते हैं जो दिख रहा है वो भी सत्य और सपने में जो दिख रहा है वो भी सत्य पर अष्टावक्र जी जनक जी से कहते हैं न यह जगत सत्य, न स्वप्न में दिखने वाला जगत सत्य तो ऐसे कैसे?

अगर यह प्रसंग आपने नहीं सुन तो बताते हैं:एक दिन राजा जनक अपने महल में शयन कर रहे थे।उन्हें स्वप्न हुआ,अद्भुत स्वप्न!वे एक दीन-हीन भिक्षुक हैं।तीन दिन से कुछ खाने पीने को नहीं मिला।कहीं से किसी पात्र में किसी प्रकार दाल-चावल मिले।मृतिका पात्र में पकाने लगे ।उसी समय लड़ते हुए दो बैल वहाँ आये और वह खिचड़ी नष्ट-भ्रष्ट हो गयी। नींद टूट गयी और स्वप्न के दृश्य अदृश्य हो गये।महल,पलंग,रात्रि का सुख- शयन सब ज्यों-का-त्यों मिला।अब प्रश्न उठा ‘यह सत्य कि वह सत्य’ अब इसका कोई समाधान नहीं कर पाया तब अष्टावक्र जी ने कहा ‘ न यह सत्य न वह सत्य।(अष्टावक्र गीता)

दादा बताते हैं:तीन सत्तायें मानी गयी हैं व्यवहारिक सत्ता,प्रतिभासिक सत्ता और परमार्थिक सत्ता।जगत हैं व्यवहार की सत्ता,स्वप्न है प्रतिभासिक सत्ता और स्वप्न, जाग्रत दोनों ही जिस अधिष्ठान में अध्यस्त हैं, वह अपना आत्मा हैं वही सत्य का सत्य हैं इसको परमार्थिक सत्ता बोलेंगे।

अच्छा मानो आप किसी से बात कर रहे हो तो जो बोलने-सुनने की क्रिया हो रही है इसको आप सत्य मानेंगे या नहीं, मानेंगे।जब सपना देखते है तो वो भी सच्चा लगता है या नहीं,लगता है। अभी आप इस वक़्त ये लेख पढ़ रहे हो ये सच्चा लगता है या नहीं,सच्चा ही प्रतीत हो रहा है।व्यवहार में जो बात हो रही है वो भी सत्य है और सपने में जो महसूस करते हैं वो भी सत्य है।सपने को बोलते हैं प्रतिभास, तो व्यवहार भी सत्य और प्रतिभास भी सत्य अगर विचार काल करें इसमें जो घटनायें सच हैं,जगत सच है,स्वप्न सच है या आप सच हैं तो पता चलेगा। एक होता है असली चेतन,एक होता है नकली चेतन तो इस नकली चेतन को ही सविषय चेतन कहते हैं।तो वही सविषय चेतन स्वप्न में भी रहता है,जाग्रत में तो रहता ही है और जब आँखों से ज्ञान नहीं हो रहा होता है उसको प्रतिभास बोल देते हैं ,जहाँ आभास चेतन होता है उसको अपना भी भान होता है और संसार का भी भान होता है, ये व्यवहारिक है आभास चेतन है ये दोनों सत्य नहीं है वो उसको सुषुप्ति काल में घटा देते हैं क्योंकि सुषुप्ति काल में दोनों ही नहीं रहते हैं और ये दोनों मिथ्या सिद्ध हो जाते हैं,मानो आपको गहरी नींद आ जाये,सुषुप्ति काल हो गया अब बताओ उसमें क्या सच? ना तो जगत दिखेगा, ना स्वप्न तो सुषुप्ति काल में जो अज्ञान है ना वो सत्य है,उससे आगे बढ़ जायें और परमात्मा की दृष्टि से जगत क्या है तो जगत मिथ्या सिद्ध होगा,स्वप्न मिथ्या सिद्ध होगा,सुषुप्ति मिथ्या सिद्ध होगा उसको असत्य नहीं कह सकते मिथ्या बोलेंगे ।सत्य और असत्य के बीच की अवस्था होती है उसको मिथ्या बोलेंगे।तो ना जाग्रत सत्य है, ना स्वप्न सत्य है, ना सुषुप्ति सत्य है, सत्य केवल परमात्मा है।हमारी सत्ता से असली मैं के मुकाबले से तुलना की जाय तो जाग्रत,स्वप्न और सुषुप्ति मिथ्या ही होंगे और परमात्मा वो ही सच्चिदानंद है,जो हमेशा एक समान है वो ही सत्य हैं।

ऐसे ही एक बार हमने दादा से पूछा था ये संसार भ्रम है पर हमको सत्य क्यों प्रतीत होता है? दादा ने बताया:ये संसार कहीं बाहर नहीं हमारे मन में दिखायी देता है,मन में ही संसार बसा हुआ है,संसार की सत्यता को मन देता है।झूठी चीज तो झूठी चीज को ही दिखायेगी ये भ्रम सत्य दिखायी देता है हमको। वेदान्त के शब्दों में बोलेंगे दृश्य बदलने वाला है और जो देखने वाला वह कभी बदलने वाला नहीं है।एक होता है सत्य जिसका तीनों काल में कभी अभाव नहीं होता,जिसमें कभी परिवर्तन हो नहीं सकता।एक होता है असत्य जो तीनों काल में होता ही नहीं है जैसे कोई कहे बांझ के बेटे ने फलाने को गोली मार दी, ये असत्य है बांझ के बेटा कहाँ से होगा ।अब इन दोनों के बीच एक की अवस्था होती है जिसको ना सत्य कह सकते ना असत्य ।संसार कैसा है सत्य भी नहीं है क्योंकि परमात्मा सत्य है ,असत्य भी नहीं है क्योंकि दिखायी दे रहा है तो कह देंगे मिथ्या है यानि जो वास्तविक है उसको हम नहीं जानते है और जो अवास्तविक है उसको हमने मान लिया है इसी को भ्रम या मिथ्या बोलेंगे।भक्ति सिद्धांत में बोलेंगे सब रूपों में परमात्मा है,सबमें परमात्मा है तो सब झूठा,सब परमात्मा है।सबके अंदर सांई रमता, कटुक वचन मत बोल रे॥कबीर । सोना सच्चा है और जो आभूषण दिखायी दे रहे हैं वो काल्पनिक हैं सोने के बने सौ आभूषण हैं वो आकृति हैं वो काल्पनिक हैं ,सोना है वो वास्तविक है इस दृष्टिकोण से देखना चाहिये ऐसे ही संसार का जो आधार अधिष्ठान है वो परमात्मा है वो सच्चा है और उसमें जो आकृति दिखायी दे रही है वो काल्पनिक।जो सत्य है परमात्मा उसको भूल गये और जगत को सच मानने लगे।मन में दिखायी पड़ा और मन झूठा है क्योंकि सत्य आत्मा है और झूठी छाया है तो मन झूठा सिद्ध होगा।असत्य असत्य को देखेगा और सत्य सत्य को।जो सम्बन्ध है वो परमात्मा के नाते से है तो संसार भ्रम नहीं दिखायी देगा सब परमात्मा ही दिखायी देगा बुद्धि से जुड़ गये तो परमात्मा झूठा दिखायी देगा और संसार सत्य दिखायी देगा ये दोनों ही भ्रम है।रा॰च॰मा॰/श्लोक 6
यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्।। भावार्थ:-जिनकी माया के वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्ता से रस्सी में सर्प के भ्रम की भाँति यह सारा दृश्य जगत्‌ सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके केवल चरण ही भवसागर से तरने की इच्छा वालों के लिए एकमात्र नौका हैं, उन समस्त कारणों से पर (सब कारणों के कारण और सबसे श्रेष्ठ) राम कहलाने वाले भगवान हरि की मैं वंदना करता हूँ॥6॥जिसकी सत्ता से ये संसार भी सत्य दिखायी देता है इसी को भगवान की माया कहते हैं माया का अर्थ अपने को सही ना जानना,मन को ही मैं मान लेना ये ही माया है। हमारे गुरुदेव कहा करते थे :
यह संसार स्वप्न वत मिथ्या,मनो मात्र बतलाईये
मन अभाव कहाँ हैं दुनिया ये हमको दिखलाईयेविचारसागर
तो मन का अभाव करो तो दुनिया नहीं है तो कौन है परमात्मा ही तो है। जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥116.4॥भावार्थ:-यह जगत प्रकाश्य है और श्री रामचन्द्रजी इसके प्रकाशक हैं। वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं। जिनकी सत्ता से, मोह की सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य सी भासित होती है॥4॥ ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्रा न सत्तन्नासदुच्यते ।।13.12।।जो जानने योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्द को प्राप्त होता है, उसको भलीभाँति कहूँगा। वह अनादिवाला परमब्रह्म न सत् ही कहा जाता है, न असत् ही ।।12।।वो सत-असत से भी परे है।

भक्ति ग्रंथ वो परमात्मा को सत्य बताते हैं कभी ये नहीं कहते हैं कि परमात्मा हैं कि नहीं।वो है सत्य, उसी सत्य से ये जगत सत्य प्रतीत होता है।वेदान्त में कहते हैं जगत है वो असत नहीं है। दोनों बात एक ही है,वो जगत को असत्य नहीं कहते हैं। भक्ति ग्रंथ कहते हैं परमात्मा का असत होना संभव नहीं है इसको जो समझने वाला है परमात्मा और जगत के बीच में खड़ा हो गया है वो ही झूठा है ।परमात्मा ही संसार बना और उसी की सत्ता से जो बीच में खड़ा हुआ वो बना वो भूल जाता है मैं पना जोड़ लेता है पर परमात्मा कभी नहीं भूलता। हमारा कर्तव्य केवल इतना है कि हम मन का वाद करें नाकि जगत का।

अष्टावक्र जी जनक जी को कहते हैं वो परम चैतन्य तत्व आप ही हो बाकि सब मिथ्या,ये सत् अधिष्ठान और चित् प्रकाश दोनों एक ही हैं। शंकराचार्य ब्रह्मसूत्र में बताते हैं :ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या जीवोब्रमैहव नापरह, अर्थात् ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या है तथा जीव ही ब्रह्म है अन्य कोई नहीं है।जीव ईश्वर से अभिन्न है।स्वप्न कोई हमारे से अलग चीज नहीं है,उसका साक्षी भी मैं ही होता हूँ,जागृत का भी साक्षी मैं ही होता हूँ।मैं के बिना ना तो ना सुषुप्ति हो सकती है,ना स्वप्न होगा,ना जागृत होगा,ना जगत होगा ना जीव होगा,परमात्मा की सिद्धि आप से ही होती है वो अभिन्न है ।माया से ही दिख रहा होता है मैं जग रहा हूँ।ना परमात्मा आपसे भिन्न हो सकता है,ना आपका आत्मा आपसे भिन्न है,ना ये अवस्थाएँ आपसे भिन्न है,ये ही सर्वव्यापी आत्मा है ये ही परमात्मा है।

श्री राधे

प्रबोधसुधा वर्षण

नाम की महिमा

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ।।

यह लेख अपने पूज्य गुरुदेव स्वामी श्री प्रबोधानन्द जी महाराज के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ और धन्यवाद करती हूँ अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी का जिन्होंने इसमें मेरा सहयोग किया है।
नाम की महिमा तो ऐसी है जिसको कोई भी नहीं कह सकता फिर भी एक छोटा सा प्रयास कर रही हूँ ,जो भी मैंने अपने गुरुदेव ,दादा और भक्तों के मुख से श्रवण किया है, उसको अपनी बुद्धि के अनुसार लिख रही हूँ।
तुलसीदास सी कहते है नाम लेने से मैं तुलसी के समान पवित्र हो गया हूँ।

नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥ 26॥
भावार्थ-
कलियुग में राम का नाम कल्पतरु और कल्याण का निवास है, जिसको स्मरण करने से भाँग-सा (निकृष्ट) तुलसीदास तुलसी के समान (पवित्र) हो गया॥ 26॥

नाम की बड़ी महिमा है अब देखो कोई जा रहा हो हम उसको उसके नाम से पुकारें तो वो जरूर देखेगा और उसी नाम के तीन लोग जा रहे हों तो वो तीनों हमारी तरफ जरूर देखेंगे तो नाम की ये महिमा है जिसमें नामी अपने नाम के अधीन होता है कोई हमारा नाम पुकारे हम तुरंत उसकी ओर देखते हैं ,नाम के अंदर नामी पूर्ण आ जाता है इसलिये नामी नाम से अभिन्न होता है।जब कोई भगवान का नाम जपता है तो भगवान तुरंत उसकी ओर देखने को विवश होते हैं, भूल से भी ले लो तो भी जैसे अजामिल ने नाम लिया और उसका कल्याण हो गया ,और कोई भाव से आदरपूर्वक नाम ले तो भगवान पूरे के पूरे उसके बस में हो जाते हैं जैसे सूरदास,तुलसीदास,मीराबाई आदि। कैसे भी ले लो नाम सब को ही तार देते है इतने दयालु है ।जितने भी बड़े-बड़े पापी थे वो इस नाम से ही तर गये और हनुमान जी ने नाम जप-जप भगवान को अपने बस में कर लिया।
एक बार तुलसीदास जी से एक भक्त ने पूछा: कभी-कभी भक्ति करने को मन नहीं करता फिर भी नाम जपने के लिये बैठ जाते है, क्या उसका भी कोई फल मिलता है?तुलसी दास जी ने मुस्करा कर कहा:

तुलसी मेरे राम को, रीझ भजो या खीज।
भौम पड़ा जामे सभी, उल्टा सीधा बीज॥

अर्थात्: भूमि में जब बीज बोये जाते हैं तो यह नहीं देखा जाता कि बीज उल्टे पड़े हैं या सीधे पर फिर भी कालांतर में फसल बन जाती है।
प्रह्लाद,ध्रुव ने बाल्यावस्था में भगवान को पाया ,वाल्मीकि जी राम नाम के प्रभाव को जानते हैं जो उल्टा नाम मरा-मरा कहकर पवित्र हो गये।
तुलसीदास जी ने रामचरितमानस मे 47 चौपाइयाँ नाम की महिमा पर लिखीं हैं।

गुरुदेव बताते हमको :अपने ग्रंथों में नाम की बहुत बड़ी महिमा गायी है,बहुत बड़ी महिमा
रामचरित मानस में आता है कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥
मैं नाम की महिमा को क्या बताऊँ, राम जी खुद भी नहीं बता सकते अपने नाम की महिमा को ,तुलसीदास जी ने कहा। कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥राम जी के नाम में इतनी शक्ति है कि राम जी खुद भी नहीं बता सकते हैं, क्या था जब पुल बाँध रहे थे लंका जाने के लिये तो बड़े-बड़े पत्थर पर राम नाम लिखकर वानर पानी में लुढ़का देते थे और वो पत्थर तैरता है हजारों मन वजन हो जिस पत्थर का वो भी पानी पर तैरता ।राम जी ने देखा मेरे नाम में इतनी शक्ति है तो मेरे में कितनी होगी? उन्होंने बड़े-बड़े तीन पत्थर लिये पानी में डालने के लिये ,जो हाथ में आ सकें ऐसे पत्थर लिये और सोचें देखूँ तैरते हैं या नहीं तैरते तो एक दम एकान्त में चले गये तो उन्होंने समुद्र में पहला पत्थर फेंका तो पत्थर डूब गया, दूसरा फेंका वो भी डूब गया,तीसरा फेंका वो भी डूब गया उन्होंने कहा मेरे में कोई शक्ति नहीं है सारी शक्ति नाम में है? हनुमान जी खड़े थे उन्होंने देख ली ये बात तो राम जी बड़ा सकुचाये बोले हनुमान तुमने देख लिया मुझमें कोई शक्ति नहीं है?हनुमान जी बोले प्रभु आप जिसका परित्याग कर दो वो तो डूबेगा ही डूबेगा। ये मायाजाल में, संसार में भगवान जिसका परित्याग कर दें वो तो डूबेगा ही डूबेगा और जिसको भगवान निकालना चाहें तो सारा सामर्थ्य उन्हीं का है और किसी का सामर्थ्य नहीं है ये जो भगवान की माया है ना सब इसमें फसे हुए हैं उससे निकालने का दायित्व है ना भगवान का है ,ये माया किसी की बुद्धि कब खराब कर दें कुछ कहा नहीं जा सकता है नारद जी को भी अहंकार हो गया मैंने माया जीत ली है ,फिर भगवान ने अहंकार को हरा फिर उन्होंने भगवान को श्राप दे दिया जैसे मैं तड़पा हूँ तुम भी तड़पोगे और ये वानर ही तुम्हारी सहायता करेंगे ऐसे रामायण में आता है।आजतक ऐसा धरती पर कोई नहीं हुआ जो भगवान की माया को जीत ले।
अतिसय प्रबल देव तव माया॥ छूटइ राम करहु जौं दाया॥हे देव! आपकी माया अत्यंत ही प्रबल है। आप जब दया करते हैं, हे राम! तभी यह छूटती है॥

बिषय बस्य सुर नर मुनि स्वामी॥ मैं पावँर पसु कपि अति कामी॥
नारि नयन सर जाहि न लागा। घोर क्रोध तम निसि जो जागा॥2॥

भावार्थ:-हे स्वामी! देवता, मनुष्य और मुनि सभी विषयों के वश में हैं। फिर मैं तो पामर पशु और पशुओं में भी अत्यंत कामी बंदर हूँ। स्त्री का नयन बाण जिसको नहीं लगा, जो भयंकर क्रोध रूपी अँधेरी रात में भी जागता रहता है (क्रोधान्ध नहीं होता)॥2॥

लोभ पाँस जेहिं गर न बँधाया। सो नर तुम्ह समान रघुराया॥
यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपा पाव कोइ कोई॥3॥

भावार्थ:-और लोभ की फाँसी से जिसने अपना गला नहीं बँधाया, हे रघुनाथजी! वह मनुष्य आप ही के समान है। ये गुण साधन से नहीं प्राप्त होते। आपकी कृपा से ही कोई-कोई इन्हें पाते हैं॥3॥

भगवान की माया इतनी प्रबल है कि भगवान का नाम ही उसका एक उपाय है।

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।7.14।।
।।7.14।। क्योंकि मेरी यह गुणमयी दैवी माया बड़ी दुरत्यय है अर्थात् इससे पार पाना बड़ा कठिन है। जो केवल मेरे ही शरण होते हैं, वे इस मायाको तर जाते हैं।

हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥ हरि का नाम, हरि का नाम, हरि का नाम केवल श्री हरि का ही नाम इस कलिकाल में ”प्रभु” के नाम के अतिरिक्त और कोई गति नहीं है।

कृष्ण-नाम महामन्त्र एइ त स्वभाव। जेई जपे, तार कृष्णे उपजये भाव।। कृष्ण विषयक प्रेमा परम पुरुषार्थ। जार आगे तृण तुल्य चारि पुरुषार्थ ।चै.चरित.1-7-80,81 “वत्स! श्रीकृष्ण नाम का स्वभाव है कि जो भी श्रीकृष्ण नाम का संकीर्त्तन करता है, उसके चित्त में श्रीकृष्ण-प्रेम का आविर्भाव होता है। श्रीकृष्ण-विषयक प्रेम ही जीव का परम पुरुषार्थ है, जिसको प्राप्त कर लेने पर धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष ये चारों पुरुषार्थ भी तृण के समान नितान्त तुच्छ प्रतीय मान होते हैं।

एक प्रसंग चैतन्य चरितामृत में आता है:
श्रील हरिदास ठाकुर बेनोपाल के जंगलों में एक निर्जन स्थान में कुटिया में रहते व प्रतिदिन तुलसी सेवा व तीन लाख हरिनाम करते तथा भोजन करने के लिए ब्राह्मणों के घर जाते।वहीं उस इलाके में रामचन्द्र खान नाम का एक जमींदार रहता था और वो इनसे जलता था। वह इनके दोष ढूंढने लगा किन्तु जब वो कोई दोष नहीं दिखा पाया तो उसने वैश्या को बुलाया ताकि वो उनके द्वारा श्रील हरिदास जी का चरित्र भ्रष्ट कर सके।
 
रात के समय सज-धज कर वैश्या कुटिया में पहुंची। कुटिया के बाहर तुलसी जी को देखकर हिन्दु संस्कारवशतः तुलसी को प्रणाम कर श्रील हरिदास के पास अन्दर चली गई। श्रील हरिदास ठाकुर को आकर्षित करने के लिए उसने जितने प्रकार की स्त्री सुलभ चेष्टाएं होती हैं, सब कीं व ठाकुर से बहुत मीठे शब्दों में बोली, “ठाकुर, तुम बहुत सुन्दर हो। युवा हो। आपको देख कौन नारी अपना धैर्य रख सकती है? मैं आप पर मोहित हूं और आपके संग के लिए ही यहां आई हूं। अगर आपने मेरी इच्छा पूरी नहीं की, तो मैं आत्म-हत्या कर लूंगी।”

 श्रील हरिदास ठाकुर बोले,”मैंने संख्या पूर्वक हरिनाम का व्रत शुरु किया है। व्रत पूरा होते ही मैं आपकी इच्छा पूरी करूंगा।”इधर हरिनाम करते- करते सुबह हो गई तो वैश्या थोड़ा घबरा कर वहां से चल पड़ी।
अगली रात को वैश्या फिर श्रील हरिदास जी की कुटिया में पहुंची। उसने तुलसी जी को प्रणाम किया और भीतर गई। श्रील हरिदास जी ने उसे आया देख कहा,”कल आपकी इच्छा मैं पूरी नहीं कर पाया, किन्तु हरिनाम संकीर्तन संख्या व्रत पूरा होते ही, आज अवश्य आपकी इच्छा पूर्ण कर दूंगा।इस बार उसने धैर्य तोड़ देने वाले स्त्री-भावों को प्रकट किया, किन्तु श्रील हरिदास ठाकुर जी निर्विकार भाव से हरिनाम करते रहे। कुछ होता न देख, वो श्रील हरिदास ठाकुर के पास बैठ कर सारी रात उनके मुख से हरिनाम संकीर्तन सुनती रही, किन्तु बीच-बीच में अपनी असफल चेष्टाएं भी करती रही। 
रात्रि समाप्त होते देख, वैश्या जब ज्यादा उतावली हो गई तो श्रील हरिदास जी बोले,” मैंने एक महीने में एक करोड़ हरिनाम लेने का व्रत लिया हुआ है, वह बस समाप्त ही होने वाला है। कल अवश्य ही व्रत पूरा हो जाएगा, तब मैं निश्चिन्त होकर आपका संग करूंगा।”
वैश्या लौट गई। तीसरी रात फिर आई और कुटिया के बाहर तुलसी जी को प्रणाम कर अन्दर चली गई। वो श्रील हरिदास ठाकुर के पास बैठ कर व्रत पूरा होने का इंतज़ार करने लगी। इतने दिन लम्बे समय से हरिनाम सुनते-सुनते उसके मन का मैलापन दूर हो गया। उसे अपने किये पर पश्चाताप होने लगा। सुबह होते ही उसने श्रील हरिदास ठाकुर के चरणों में गिरकर क्षमा मांगी और रामचन्द्र खान के उद्देश्य के बारे में बता दिया।
 श्रील हरिदास ठाकुर जी बोले, “मैं तो उसी दिन यहां से चला जाता जिस दिन आप यहां आई थी केवल आपके कल्याण की चिन्ता के कारण मैंने तीन दिन प्रतीक्षा की।”
वह लक्षहीरा वैश्या सब गलत काम छोड़ परम वैष्णवी हो गयी और श्रील हरिदास ठाकुर की शिष्या हो गयी और अपने गुरुदेव की तरह रोज तीन लाख हरिनाम जप और तुलसी सेवा करने लगीं।उसके हृदय में शुद्ध भगवद प्रेम प्रकाशित हो गया।
श्रीचैतन्य चरितामृत में लिखा है कि लक्षहीरा वैश्या, एक ऐसी परम-वैष्णवी बन गई कि बड़े-बड़े वैष्णव भी उनके दर्शन करने व उनसे हरिचर्चा के लिए उनके पास आया करते थे।
भगवान का नाम सब कुछ कर सकता है पूर्ण हृदय परिवर्तित कर देता है जो नाम लेते और सुनते हैं सबका।
भगवान अपने नाम का अनुगमन करते हैं जहाँ पुकारो वहाँ चले जाते हैं।ये ही सत्य है और ये ही नाम साथ जाता है।

श्री राधे

प्रबोधसुधा वर्षण

सकाम और निष्काम भक्त

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ।।

यह लेख अपने गुरुदेव स्वामी श्री प्रबोधानन्द जी महाराज के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ और धन्यवाद करती हूँ अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी का जिन्होंने इस विषय पर हमारा मार्गदर्शन किया है,हमको इतना सब-कुछ बताया है जिसको इस लेख में लिखा गया है।

स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज कहते हैं: सकाम व्यक्तिकी पकड़ दृढ़ होती है और निष्काम व्यक्तिकी ढ़ीली | अत: भगवान्‌के चिन्तनमें सकामता अधिक उपयोगी है। भगवच्चिन्तन जब बढ़ेगा, तब अपने आप कामनाएँ मिट जायँगी । जब हमने ये पढ़ा तो हमने अपने दादा से पूछा कि निष्काम व्यक्ति की तो कोई इच्छा नहीं होती है तो उसकी पकड़ ढीली कैसी होती है और सकाम व्यक्ति की पकड़ दृढ़ क्यों होती है तो हमारे दादा हमको समझाते हैं:

जो सकाम भक्त होते हैं तो भगवद गीता में आता है चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।7.16।।अर्थ:हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन पवित्र कर्म करनेवाले अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात् प्रेमी ये चार प्रकारके मनुष्य मेरा भजन करते हैं अर्थात् मेरे शरण होते हैं। ये चारों मनुष्य भगवान का भजन करते हैं,भगवान शरण होते हैं जो कुछ भी चाहिये तो वो भगवान को ही कहते हैं और किसी को नहीं।अब तेरे सिवा कौन मेरा कृष्ण कन्हैया ।तो देखो एक होती है कामना, एक भगवान का विश्वास और एक भगवान की उपस्थिति ।तीन चीज हो गयीं एक भगवान हैं,उनपे विश्वास हो और कामना की पूर्ति के लिये भी उनसे ही करें ,हम भगवान को भूलें चाहे ना भूलें अपनी कामना को कभी नहीं भूलते।आपके जीवन में कोई न्यूनता हो ना उसको आप कभी नहीं भूल सकते हमको हमेशा याद आयेगा और हमें विश्वास भगवान पर है और किसी पर नहीं है तो कामना,भगवान और विश्वास तीनों एक हो गये तो दृढ़ता से पकड़ा या नहीं?दृढ़ता से ही पकड़ा। और मानो भगवान से कुछ चाहिये ही नहीं कोई कामना नहीं है तो भगवान से लगे रहे हम अपनी धुन में रहते हैं ,तो पकड़ ढ़ीली रहती है।पकड़ ढ़ीली का मतलब ये हुआ कि भगवान की उपस्थिति सदैव रहती है तो उनको याद करने की जरूरत नहीं पड़ती और कामना की वजह से याद करते है तो विश्वास पहले होता है,फिर भगवान होते है और फिर कामना होती है तो दृढ़ता से पकड़ता है व्यक्ति।

एक उदाहरण आता है जो गुरुदेव सुनाया करते:एक हैं भक्त निष्काम भगवान शिव के भक्त हैं उनकी दिनचर्या है कि कहीं गये वहाँ से आटा ले आये,रोटी नहीं मांगते किसी से,और जहाँ पर भी पानी मिल गया जैसा भी मिल गया वहाँ से पानी ले लिया और उसमें आटे को बना लिया ,कहीं चिता जली मिल गयी वहाँ रोटी बना ली ये उनका नियम था।रोटी नहीं मांगनी,ना पानी मांगते ना अग्नि मांगते।इतने निष्काम भक्त हैं भगवान के ये और भगवान का योग और ध्यान करते हैं अब जब बहुत दिन हो गये तो पार्वती माता ने पूछा भोले बाबा से ,ये जो आपका भक्त है ये बहुत ही अच्छा है ये तो कभी कोई कामना ही नहीं करता और आपके ध्यान में मगन रहता है,बड़ा ही निष्काम है देखो अग्नि की भी जरूरत नहीं है, चिता पर ही रोटी बनाकर खा लेता है,रोटी की भी कामना नहीं करता ,आटा लेकर आता है अच्छे पानी की भी कामना नहीं करता है, कहीं से भी पानी ले लेता है तो ऐसे भक्त को तो दर्शन दो प्रभु और इसकी जो मनोवांछा है उसको पूरा करिये। भगवान शिव बोले पार्वती रहने दो ये आदमी ऐसा नहीं जैसा तुम समझ रही हो तो वो नहीं मानी जिद्द पर अड़ गयी तो बाबा ने बोला पार्वती एक शर्त है मैं और तुम पीछे खड़े होंगे जाकर इसके और बात तुम करोगी इससे, मैं तो चुप रहूंगा तो पार्वती जी मान गयीं तो शिव और पार्वती जी उन भक्त के पीछे जाकर खड़े हो गये हैं वो चिता पर रोटी भूनना शुरु ही किया था तभी पार्वती माता कहती हैं तुम दिन-रात जिसका भजन करते हो जिसके भरोसे तुम रहते हो और इतने निष्काम हो तो भगवान शंकर और मैं पार्वती तुमको दर्शन देने आये हैं भक्तराज तुम पीछे मुड़ो और दर्शन करो, वो बोले तुम मेरे भजन में और मेरे कर्म में विघ्न-बाधा मात डालो जाओ जहाँ से आयी हो ,मुझे ना भोले बाबा से मतलब है ना पार्वती माता से मतलब है तुम जाओ कोई होगी। माता ने बहुत प्रलोभन दिये,तरीके-तरीके की बात की हमारा दर्शन तो करो एक बार भक्तराज ,अपना जीवन सफल करो वो बिल्कुल पीछे मुड़ कर देखता ही नहीं है।जब वो नहीं सुनता है तो भोले बाबा कहते है तू कुछ नहीं मांगता है तो हमको जो तू रोटी बना रहा है एक हमको दे दे तो उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा ,सिर से पीछे हाथ ऊपर करके रोटी दे दी और वो रोटी बहुत स्वादिष्ट थी ,पार्वती माता ने भी खायी ,भोले बाबा ने भी खायी उनको स्वाद आ गया उन्होंने कहा और देदे,उसने और दे दी और खा कर बड़े तृप्त हुए भगवान बोले तुम भी खालो ,उसने भी खा ली फिर पार्वती जी अब तो तुझे विश्वास हो गया ? हम तेरे पीछे खड़े हैं भगवान तुझे दर्शन देने आये हैं तू कर ले दर्शन।वो फिर माता पर अकड़ गया बोला मुझे बार-बार प्रलोभन देती हो जब वो अकड़ गया तो पार्वती जी को बुरा लग गया उन्होंने श्राप दे दिया जा तू ऊँट हो जा ,अब वो ऊँट हो गया तत्काल फिर उस योनि में भी वही सब काम करे खड़ा हो जाये खाले, पी ले और भगवान का भजन करे पार्वती जी को बुरा लगा इनको हमने श्राप गलत दे दिया फिर वो दोनों उस ऊँट के पीछे आकर खड़े हो गये बोले अब तू अपनी गलती सुधार ले पीछे मुड़कर दर्शन कर ले और मनुष्य योनि में फिर आजा,बोले माता तुमने बड़ा उपकार किया है मेरे ऊपर ,पहले आटा मांग कर लाओ फिर पानी तलाशो फिर चिता तलाशो तब जाकर पेट भरता था अब तो किसी पेड़ के नीचे खड़े हो जाओ और गर्दन ऊँची करो आराम से खा लो और बैठ जाओ तो भजन के लिये बहुत समय मिलता है, अब तुम जाओ मुझे तुम्हारे दर्शन नहीं करने ,माता बोली ये तो बहुत अकड़ू है इसको तो अभिमान हो गया ऊँची गर्दन का तो माता बोली अच्छा तू बकरी बन जा अब वो बकरी हो गया अब बकरी बनने के बाद भी यही क्रम चलता रहा, फिर वो दोनों आये बोले इसको क्षमा करो अब वो बोलता है ऊँट का पेट बड़ा था समय लगता था भरने में अब तो एक पेड़ किनारे बैठ जाती हूँ वहीं खा लेती हूँ भजन भी हो जाता है गर्दन भी नहीं थकती ,उसने दर्शन करने को फिर मना कर दिया ,अब भोले बाबा पर रहा नहीं गया, तू हमसे कुछ नहीं मांगता तो हम तुझसे कुछ मांग लें ?बोला हाँ मांगो क्या दे सकता हूँ आपको?बाबा बोले हमारे यहाँ तू बेटा बनकर पैदा हो जा वही सन्त कार्तिकेय जी बनकर आये हैं। निष्काम भक्त हैं उनकी पकड़ ढ़ीली का मतलब वो अपनी धुन में रहते हैं पार्वती जी और भोले बाबा सामने खड़े है फिर भी उनको कुछ नहीं चाहिये तो हो गयी ना पकड़ ढ़ीली।निष्काम को भगवान से कुछ नहीं चाहिये होता है ,भगवान चलते हैं उसके पीछे-पीछे, माँग ले भाई कुछ।

एक उदाहरण आता है रामचरित मानस में जिसमें राम जी के जन्म का हेतु बताया है,मनु और शतरूपा है राजा मनु अपने ज्येष्ठ पुत्र उत्तानपाद को हठपूर्वक राज्य सौंपकर शतरूपा के साथ तपस्या हेतु नैमिषारणय वन में गोमती नदी के तीर पर पहुंच वहां तपस्या की,अंत में उनकी तपस्या से प्रभु ने प्रसन्न होकर वरदान मांगने को कहा तब राजा मनु-शतरूपा ने अगले जन्म में पुत्र के रूप में प्रभु से अवतार लेने की कामना की। 
जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होई यह बर देहू॥
जोसरूप बस सिव मन माहीं। जेहिं कारन मुनि जतन कराहीं॥2॥भावार्थ:-हे अनाथों का कल्याण करने वाले! यदि हम लोगों पर आपका स्नेह है, तो प्रसन्न होकर यह वर दीजिए कि आपका जो स्वरूप शिवजी के मन में बसता है और जिस (की प्राप्ति) के लिए मुनि लोग यत्न करते हैं॥2॥
जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥3॥भावार्थ:-जो काकभुशुण्डि के मन रूपी मान सरोवर में विहार करने वाला हंस है, सगुण और निर्गुण कहकर वेद जिसकी प्रशंसा करते हैं, हे शरणागत के दुःख मिटाने वाले प्रभो! ऐसी कृपा कीजिए कि हम उसी रूप को नेत्र भरकर देखें॥3॥
बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।
मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥148॥भावार्थ:-फिर कृपानिधान भगवान बोले- मुझे अत्यन्त प्रसन्न जानकर और बड़ा भारी दानी मानकर, जो मन को भाए वही वर माँग लो॥148॥
दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ।
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥149॥भावार्थ:-(राजा ने कहा-) हे दानियों के शिरोमणि! हे कृपानिधान! हे नाथ! मैं अपने मन का सच्चा भाव कहता हूँ कि मैं आपके समान पुत्र चाहता हूँ। प्रभु से भला क्या छिपाना! ॥149॥
चौपाई : देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥1॥भावार्थ:-राजा की प्रीति देखकर और उनके अमूल्य वचन सुनकर करुणानिधान भगवान बोले- ऐसा ही हो। हे राजन्! मैं अपने समान (दूसरा) कहाँ जाकर खोजूँ! अतः स्वयं ही आकर तुम्हारा पुत्र बनूँगा॥1॥ऐसे भगवान राम जी का अवतार लेके आये मनु जी बने राजा दशरथ और शतरूपा जी बनी माता कौशल्या।

निष्काम भक्त की पकड़ अलग तरीके की होती है मस्त रहते हैं ,वो अपने में रहते हैं।जो अपने ध्यान में भगवान का ध्यान करते हैं ना उनको किसी चीज की कामना नहीं होती है। जैसे राम जी सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम में पहुँचे सुतीक्ष्ण मुनि अगस्त्य ऋषि के शिष्य थे और भगवान्‌ के बड़े भक्त थे।वो राम जी के रूप का दर्शन करते थे उनको पता था राम जी दर्शन देने आयेंगे तो अपने ध्यान में मगन हैं भगवान देख रहें हैं उनको,बहुत कोशिश करते हैं जगाने की , वो जगते ही नहीं हैं वो ध्यान में दर्शन का आनन्द ले रहे हैं अब राम जी सामने खड़े हैं वो आँखे नहीं खोलते,भगवान उस रूप को हटा देते हैं उनके हृदय से और चतुर्भुज रूप को प्रकट कर देते हैं अंदर अब वो बेचैन हो गये और ध्यान टूट गया फिर राम जी को सामने खड़ा देखा।जैसे ही चित्र बदला आँख खुल गयी तो ये निष्काम भक्तों की पहचान हो गयी ध्यान भंग हो गया और कामना वालों का कभी अपनी कामनाओं से ध्यान नहीं हटता है भगवान का वो दर्शन भी करते है जैसे कर्दम मुनि का उदाहरण आता है उन्होंने हजारों वर्ष तपस्या की है भगवान दर्शन देने आये हैं बोले क्या मांगते हो बोले धर्म में जो साथ निभाये ऐसी पत्नी देदो तो ये कामना लगी उनको भगवान तथास्तु बोल कर चले गये।भगवान के आँसू आ गये,गरुण जी ने देख लिये उन्होंने पूछा भगवान आप क्यों रो रहे हो क्या बात हो गयी? भगवान बोले सब धर्मों का फल मैं हूँ और वरदान माँगा धर्म में साथ निभाने वाली पत्नी है मेरा तिरस्कार कर दिया है फिर भगवान उनका देवहूति जी के साथ विवाह कर वा देते हैं।

जो निष्काम भक्ति वाले होते है अपनी धुन में मस्त रहते हैं,सहज प्रेम करते हैं यानि बिना किसी कारण के प्रेम, किसी कारण से प्रेम हुआ तो सहज प्रेम नहींं हुआ तो सहज प्रेम वाला है ,मस्त रहता है। जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु॥131॥भावार्थ:जिसको कभी कुछ भी नहीं चाहिए और जिसका आपसे स्वाभाविक प्रेम है, आप उसके मन में निरंतर निवास कीजिए, वह आपका अपना निज घर है॥131॥ और जिसको कामनाओं वाला प्रेम है ना भगवान को भूलता है और ना साधन छोड़ता है इसलिये वो ऐसा बोलते हैं सकाम व्यक्तिकी पकड़ दृढ़ होती है ।तो लगातर चिंतन से चित्त शुद्ध होता है और फिर कामनायें मिट जाती हैं।

इससे और ऊपर जायें तो निष्काम भक्त की जो दृढ़ता होती है वो बहुत मजबूत होती है वो किसी के प्रलोभन में नहीं आता है वो तो भगवान से भगवान को भी नहीं माँगता भगवान को अपने ही अंदर देखता है,निष्काम भक्त को कुछ दिखे ना दिखे भगवान का दर्शन होता है।सकाम भक्त को सब दिखता है भगवान भी और कामना भी।गोपियों से उद्धव जी कहते हैं तुम भगवान का चिंतन किया करो ,गोपियां उनको कहती हैं चिंतन तुम किया करो उनको याद करने के लिये, हम तो उनको भूलने के लिये चिंतन करते हैं, हम कभी भूलती ही नहीं हैं।ये निष्काम भक्त की पराकाष्ठा है भूलने के लिये प्रयत्न करते हैं।इसलिये गोपियों को प्रेम की ध्वजा कहा गया है।गो +पी= जो इन्द्रियों के विषयों को बिल्कुल त्याग दे, ऐसे तो निष्काम भक्त ही होता है।पकड़ ढ़ीली प्रतीत होती है पर होती मजबूत है।ऐसे भक्तों को भगवान पकड़ते हैं।बिना देखे प्रेम करते हैं उनका प्रेम अखंड होता है वो भगवान में लीन हो जाता है।

सकाम भक्त अपनी कामना को ,विश्वास को और भगवान को तीनों को नहीं भूलता है ,वो विश्वास करता है भगवान जरूर करेंगे ऐसा और अपने साधन में तत्पर रहता है।सकाम भक्त भगवान को पकड़ता है और ऐसा करते-करते चिंतन-साधन को करते हुए चित्त शुद्ध होकर कामनायें मिट जाती हैं।साधन तो गुरु बताते हैं वो भगवान पर विश्वास जमा देते है और उपदेश करते हैं और उनसे प्रेम करवाते हैं और सकाम को निष्काम बना देते हैं। भक्ति कैसी भी हो जरूर होनी चाहिये। हरि से लागे रहो रे भाई ,तेरी बनत-बनत बन जायेगी।

श्री राधे

प्रबोधसुधा वर्षण

विपरीत परिस्थिति में साथ निभाने वाले भगवान

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ।।

यह लेख अपने गुरुदेव स्वामी श्री प्रबोधानन्द जी महाराज के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ और धन्यवाद करती हूँ अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी का जिन्होंने हमारा इस लेख में सहयोग किया है।जो गुरुदेव ने हमको बताया है वही हमने इस लेख में लिखने का पूर्ण प्रयास किया है ।

हमारे जीवन में दुख भी आता है और सुख भी आता है ,पर कठिन समय में हमारा साथ सिर्फ भगवान ही निभाते हैं उनकी कृपा की अनुभूति प्रत्यक्ष होती है।सुख के माथे सिल परो ,नाम हृदय से जाये , बलिहारी उस दुःख की ,कि पल पल नाम रटाये।

दादा बताते हैं : एक बार गुरुदेव को किसी वस्तु की जरूरत हुई तो दादा ने एक भक्त से वो वस्तु फोन करके मंगा ली फिर एक वस्तु की और जरूरत पड़ी तो वो भी एक और भक्त से मंगा ली ,अब गुरुदेव कहते है दादा से अगर आप अंजान शहर में हो वहाँ कोई जरूरत पड़ जाये और कोई ना हो तो किसके कहोगे ?दादा कहते :मजबूर होकर भगवान पर छोड़ना पड़ेगा।तब गुरुदेव ने बताया काम तो अभी भी भगवान ही कर रहे हैं हमको ये प्रतीत होता है ये हमारा काम कर रहा है वो हमारा काम कर रहा है,सहायता तो अभी भी राम जी कर रहे हैं पर भूल होती है,भ्रम होता है हमको ये काम कोई अन्य कर रहा है ।सब काम भगवान ही करते हैं वो ही निभाते हैं।

पहले मनुष्य क्या करता है अपना पुरुषार्थ, पराक्रम, धन ,जन , बुद्धि, चातुर्य का बल लगाता है,उस बल को अपना मानता है और उसको पूरा करने की कोशिश करता है, जब उसकी नहीं चलती है तो वो इधर उधर देखता है जब कुछ जब समझ नहीं आता तब अपने हाथ खड़े कर लेने पड़ते हैं ,शरणागत होता है तब भगवान की कृपानुभूति को प्रत्यक्ष अनुभव करता हैं।

गुरुदेव हमको दो प्रसंग अकसर बताया करते : एक द्रौपदी का और एक गजराज का।अब देखो द्रौपदी को युधिष्ठिर चौपड़ में हार जाते हैं और दुर्योधन द्रौपदी को भरी सभा में निर्वस्त्र करवाना चाहता है और उस सभा में द्रोणाचार्य,भीष्म पितामह,कृपाचार्य एक से एक महारथी, द्रौपदी के पांच शक्तिशाली पति सब होते हैं ,द्रौपदी सबसे गुहार लगाती हैं लेकिन कोई उनकी सहायता नहीं कर पाता है वो अपना भी बल लगाती हैं,अपना भरोसा करती हैं दुशासन उनकी साड़ी खींचता है,जब वो अपना बल,भरोसा त्याग कर हाथ ऊपर कर सच्चे हृदय से भगवान को पुकारा और वो जैसे ही गोविंद कहती हैं, भगवान वस्त्रावतार लेकर आ गये और द्रौपदी की साड़ी को अन्तहीन कर दिया सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है,नारी ही कि सारी है कि सारी ही कि नारी है उनकी साड़ी दुशासन खींच-खींच हार जाता है इस प्रकार उनकी प्रभु ने लाज बचाई ।

ऐसे ही उदहारण आता है गजराज का : क्षीरसागर में त्रिकूट नाम का एक सुन्दर और श्रेष्ठ पर्वत था जोकि दस हजार योजन ऊँचा था, त्रिकूट की तराई में भगवत्प्रेमी महात्मा वरुण का एक उद्यान था जिसका नाम ऋतुमान था और उस उद्यान में एक भारी सरोवर था उसमें सुनहले कमल खिल रहे थे।उसी पर्वत के घोर जंगल में गजेंद्र निवास करता था और वो बड़े-बड़े शक्तिशाली हाथियों का सरदार था ,एक दिन घूमते -घूमते उसको और उसके साथियों को प्यास लगी और कमल के पराग की गन्ध सूंघकर वह उसी सरोवर की ओर चल पड़ा ,उसने जल पिया,स्नान किया और थकान मिटायी और संगी साथियों के साथ उन्मत्त हो गया तभी एक बलवान ग्राह ने क्रोध में भरकर उसका पैर पकड़ लिया ,उसने अपना खूब बल लगाया परन्तु छुड़ा ना पाया उसके संगी,साथी भी कुछ नहीं कर पाये दोनों अपनी पूरी-पूरी शक्ति लगाकर भिड़े हुए थे, अन्त नें गजेंद्र का शरीर शिथिल पड़ रहा था और ग्राह जलचर था उसकी शक्ति बढ़ गयी थी अब अपनी जान तो सबको प्यारी होती है और नाक ,कान जब डूबने लगे तो सूरदास जी का पद गुरुदेव गाया करते: नाक कान डूबन लागे कृष्ण को पुकारे,हे गोविंद राखो शरण अब तो जीवन हारे।।उसने सोचा अब भगवान के अलावा मुझे कोई नहीं बचा सकता,गजेंद्र सूंड़ से कमल का फूल तोड़कर पूर्वजन्म के सीखे हुए स्त्रोत से भगवान की स्तुति करता है ,भगवान गजेंद्र की करुण पुकार सुनकर आ जाते हैं और ग्राह का मुँह फाड़ देते हैं और गजेंद्र को बचाते हैं,तो विपरीत परिस्थिति में हमारा साथ सिर्फ भगवान निभाते हैं।

अब आप जरा परीक्षित की माता उत्तरा पर ध्यान दीजिये उनके ऊपर अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया तो उत्तरा ने अपना कोई बल नहीं लगाया वो सीधे भगवान कृष्ण के पास गयीं और बोली: उत्तरोवाच
पाहि पाहि महायोगिन् देवदेव जगत्पते ।
नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्यु: परस्परम् ॥ १.८.९ ॥अभिद्रवति मामीश शरस्तप्तायसो विभो ।
कामं दहतु मां नाथ मा मे गर्भो निपात्यताम् ॥ १.८.१० ॥उत्तरा ने कहा: देवाधिदेव !जगदीश्वर! आप महायोगी हैं।आप मेरी रक्षा किजिये,रक्षा किजिये।आपके अतिरिक्त इस लोक में मुझे अभय देने वाला कोई नहीं है,क्योंकि यहाँ सभी परस्पर एक -दूसरे की मृत्यु के निमित्त बन रहे हैं।९।प्रभो !आप सर्वशक्तिमान हैं ।यह दहकते हुए लोहे के बाण मेरी ओर दौड़ा आ रहा है ।स्वामिन! यह भले ही मुझे जला डाले ,परन्तु मेरे गर्भ को नष्ट ना करे,ऐसी कृपा कीजिये ।१०। उत्तरा ने प्रार्थना की है आपके भक्तों का वंश है उसका लोप ना हो जाये अगर लोप हो गया तो आपकी भक्ति कैसे करेंगे? तब आपकी भक्ति परम्परा का ही नाश हो जायेगा।इसलिये मेरे पेट में जो बालक है उसकी रक्षा कीजिये,भक्ति परम्परा की रक्षा कीजिये।भगवान ने सोचा परीक्षित नहीं बुलाता है तो क्या हुआ,उसकी माँ तो बुलाती है।अब भी यदि रक्षा नहीं करूँगा तो कब करूँगा?पहले उत्तरा के पास जाऊँगा।फिर उत्तरा के पेट में घुसकर ,एक अस्त्र से नहीं गदा और चक्र दोनों से परीक्षित की रक्षा करूँगा।भगवान इतने उतावले हो गये की परीक्षित की माँ के पेट में घुस गये।उन्हें जहाँ नहीं जाना चाहिये था,वहाँ जाकर उन्होंने परीक्षित की रक्षा की।भागवतामृत ।। गुरुदेव कहते हैं : भगवान अपने भक्तों के लिये क्या कुछ नहीं करते।कुछ भी कर सकते हैं वो अपने भक्तों के लिये।

रामचरित मानस में आता है रावण विभीषण जी को लात मारकर राज्य से बाहर कर देता है ,विभीषण जी राम जी के पास जाते हैं वहाँ वानर सोचते हैं, ये शत्रुओं का दूत है, सुग्रीव से राम जी पूछते हैं तुम्हारी क्या राय है तो सुग्रीव कहते हैं ये हमारा भेद लेने आया है इसे बाँध रखा जाय ,राम जी कहते है तुमने नीति तो अच्छी विचारी है किन्तु मेरा प्रण शरणागत के भय को हर लेना है।सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना। सरनागत बच्छल भगवाना॥5॥ भावार्थ:-प्रभु के वचन सुनकर हनुमान्‌जी हर्षित हुए (और मन ही मन कहने लगे कि) भगवान्‌ कैसे शरणागतवत्सल (शरण में आए हुए पर पिता की भाँति प्रेम करने वाले) हैं॥5॥दोहा : सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि। ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि॥43॥ भावार्थ:-(श्री रामजी फिर बोले-) जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आए हुए का त्याग कर देते हैं, वे पामर (क्षुद्र) हैं, पापमय हैं, उन्हें देखने में भी हानि है (पाप लगता है)॥43॥रावण ने विभीषण की सम्पत्ति छीन ली है,सब छीन के बाहर निकाल दिया तो अकेला आया भगवान के पास,शरण आया तो उसको राम जी ने लंका का राजा बना दिया ।

हम जब छोटे थे तो कोई कुछ कहता था तो हमारी दादी सबसे बड़ी थी घर में उनके पीछे छुप जाते थे और कोई आता हमको कुछ कहने तो दादी उनको डंडा दिखा देती थीं ऐसे ही भगवान सबसे बड़े हैं कोई भी बात तो कुछ भी हो उनको आगे कर दो,बोल दो तुम्हीं देखो तुम्हीं जानो, भगवान अपने आप निपट लेंगे आप शरणागत हो जाओ वो ही हर परिस्थिति में साथ निभाते हैं।

श्री राधे

प्रबोधसुधा वर्षण

महाप्रसाद की महिमा

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ।।

यह लेख अपने गुरुदेव स्वामी श्री प्रबोधानन्द जी महाराज के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ और धन्यवाद करती हूँ अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी का जिन्होंने हमको महाप्रसाद की महिमा बतायी है जिसको इस लेख में लिखा गया है।

हम भोजन बनाते हैं जब उसको भगवान को अर्पित करते हैं तो वो प्रसाद हो जाता है और जब उसी प्रसाद को गुरूजन ,सन्त-महात्मा पाते हैं तो वो प्रसाद , महाप्रसाद हो जाता है।चैतन्य चरितामृत में तीन चीजें बहुत महत्वपूर्ण बतायी गयी हैं: 1- गुरुदेव / संतजनों की चरण रज 2- चरणों को धोकर जो जल प्राप्त होता है ।3-महाप्रसाद।

दादा बताते हैं : सबसे बड़ी बात तो ये है कोई भी किसी भी व्यक्ति का उच्छिष्ट पाता है तो उसका अभिमान गलता है सबसे पहले,कोई अभिमान में हो तो किसी का उच्छिष्ट खाना पसंद नहीं करता है और कोई व्यक्ति उच्छिष्ट खाने की कोशिश करता है इसका मतलब उसका अभिमान गल गया है। हमारे ग्रंथों में बताया गया है कि जो लोग सन्तों की उच्छिष्ट पाते हैं तो निश्चित रूप से उनके हृदय में भक्ति और जिसका वो छोड़ा गया प्रसाद है उन महापुरुष के सद्गुण भी उस व्यक्ति के अंदर प्रवेश करते हैं ।सन्तों के शरीर के परमाणु निकलते जो उनके पास जाता है उसको भी उनके पास जाकर बहुत शान्ति मिलती है उनकी एक नजर ही काफी होती है ,कल्याण करने के लिये और ऐसे महापुरुष के उच्छिष्ट की सोचो क्या महिमा होगी।उनके सद्गुण,प्रेम,परमाणु उसमें आ जायेंगे, जिसने वो महाप्रसाद पाया ।भोजन का बहुत महत्व है जैसा खाओ अन्न वैसा बने मन,जैसा पियो पानी वैसी बने वाणी। तो संतजन तो सात्विक,भगवान को भोग लगा हुआ प्रसाद पाते हैं, उससे सात्विक विचार आयेंगे और भगवान के प्रति निष्ठा बढ़ेगी।प्रसाद का अर्थ बताते हैं प्रभु का साक्षात दर्शन जिसमें प्र का अर्थ है प्रभु , सा का अर्थ है साक्षात एवं द का अर्थ है दर्शन।जब महापुरुषों का खाया हुआ जब प्रसाद खाते हैं तो महापुरुषों के जीवन में तो भगवान कूट-कूट के भरे होते हैं ,उनका भगवान के अलावा ना कोई आश्रय होता है ना किसी और पर वो विश्वास करते हैं ,तो ऐसे महात्माओं का प्रसाद पाओगे तो भगवान के दर्शन भी होंगे,भगवान से साक्षात प्रेम भी होगा और भगवान पर साक्षात विश्वास भी होगा, वो इसलिये होता है क्योंकि सन्तों के जीवन में तो भगवान का महत्व और भगवान का ही विश्वास होता है ,दूसरी कोई चीज होती नहीं है।एक सबसे विलक्षण गुण यह होता है ,जैसे शबरी जी हैं, उन्होंने उन बेरों की गुणवत्ता परख ली, ये मेरे राम जी के लायक हैं या नहीं, ऐसे ही महापुरुष जो प्रसादी छोड़ते हैं वो भक्तों के कल्याण के लिये छोड़ते हैं, ये जो प्रसाद है इसकी जो गुणवत्ता है ,तो गुणवत्ता कैसे देखी जाती है? सन्त अधिकांशत: उस भोजन को खाना स्वीकार करते हैं जो धर्म की कमाई से आया हुआ हो ,सात्विक हो और श्रद्धा-प्रेम से बनाया हुआ हो, तो वो जो उच्छिष्ट होगा उसका कहना ही क्या है और उसको खाने वाला भी परम सात्विक हो ।तो चारों गुण ये आयेंगे,जिसमें ये सन्तों की उच्छिष्ट प्रसादी का मुख्य भाग है।किसी-किसी को यह महाप्रसादी खाकर भगवान के दर्शन भी हो गये हैं । जब भी कोई महात्माओं की उच्छिष्ट प्रसादी खाता है, तो उनके हृदय से उसके लिये आशीष निकलता है देखो ये कितना महान है ,हमारी जूँठन को भी पा रहा है और श्रद्धा से पा रहा है।जो सदा भगवान के प्रेम की चाशनी में पगे रहते हों ऐसे महापुरुष की उच्छिष्ट खाने वाले भी उसी प्रेम की चाशनी में पग जाते हैं ,महापुरुषों की प्रसादी में ये विशेषता होती है वो भोग लगा हुआ होता है और वो भगवान ही उसको सगुण रूप से खाते हैं, सन्त के रूप में और प्रसाद के रूप में ,अपने शिष्य के लिये वो छोड़ते हैं ये मार्मिक बातें हैं ,महाप्रसाद की ये महिमा हैं।हम जब गुरुदेव के पास जाया करते मिलने तो वो अपना पूरा थाल हमको दे दिया करते थे अगर देर से पहुँचती तो उठा कर रख दिया करते और जब पहुँचती तो मुझे दे देते थे।ऐसे कृपा करते हैं गुरु,सन्त-महात्मा लोग।

श्रीमदभागवत में देवर्षि नारदजी अपने पूर्वजन्म की कथा वेदव्यास जी को बताते हैं, पूर्वकल्प में नारद जी वेदवाणी ब्राह्मणों की एक दासी के पुत्र थे, वे योगी वर्षा ऋतु में एक स्थान पर चातुर्मास्य कर रहे थे, उस समय नारद जी एक छोटे बालक थे और बचपन में ही वो उनकी सेवा में नियुक्त कर दिये गये थे, उनके शील-स्वभाव को देखकर मुनियों ने उनपर अनुग्रह किया और नारद जी उनके आदेश का पालन करते तथा उनका उच्छिष्ट पाया करते थे फिर उनको मुनियों ने गुह्यतम ज्ञान का उपदेश किया ।उच्छिष्टलेपाननुमोदितो द्विजै:
सकृत्स्म भुञ्जे तदपास्तकिल्बिष: ।
एवं प्रवृत्तस्य विशुद्धचेतस-
स्तद्धर्म एवात्मरुचि: प्रजायते ॥१.५.२५ ॥
उनकी अनुमति प्राप्त करके मैं बर्तनों में लगा हुआ जूँठन मैं एक बार खा लिया करता था।इससे मेरे सारे पाप धुल गये,इस प्रकार उनकी सेवा करते-करते मेरा हृदय शुद्ध हो गया और वे लोग जैसा भजन-पूजा करते थे,उसी में मेरी भी रुचि हो गयी।।१.५.२५।।ऐसा संग पाकर ,आदेशों को मानकर,उच्छिष्ट खाकर वे इतने उन्नत हो गए कि अपने अगले जीवन में वे महान भक्त नारद जी बन गए,जिनकी कृपा से बहुत से भक्तों को भगवद दर्शन प्राप्त हो गये और वो ब्रम्हा जी के पुत्र हुए।

ऐसे ही एक प्रसंग श्री भक्तमाल जी में आता है:-एक बार प्रातः काल श्री अग्रदेव जी महाराज भगवान् श्री सीताराम जी की मानसी सेवा में संलग्न थे और उनके शिष्य श्री नाभाजी महाराज अति कोमल एवं मधुर संरक्षण के साथ धीरे-धीर प्रेम सेे पंखा कर रहे थे । मानसी सेवा में श्री अग्रदेव जी ने श्री सीताराम जी को सुंदर स्नान करवाया, प्रक्षालन किया, श्रृंगार किया, वस्त्र अर्पण किये और अंतिम सेवा थी पुष्पमाला धारण करवाने की । श्री रामजी सर झुकाये खड़े है पुष्पमाला पहनने के लिए ।उसी समय श्री अग्रदेव जी का एक शिष्य जहाज पर चढ़ा हुआ समुद्री यात्रा कर रहा था और उसका जहाज भँवर में फँस गया और अपने गुरुदेव श्री अग्रदेव जी का स्मरण करने लगा । उससे श्रीअग्रदेव जी का ध्यान ,अतिसुंदर स्वरुप भगवान् श्री सीतारामजी की सेवा से हट गया। उधर शिष्य के प्राण संकट में थे । सेवा छोड़ कर शिष्य को बचाते है तो सेवा अपराध हो जायेगा और सेवा करने में लग गए तो शिष्य डूब जायेगा । गुरुदेव की मानसी सेवा में विघ्न जानकार श्री नाभाजी ने वहीं पर खड़े- खड़े पंखे को जोर से चलाया । पंखा चला इधर और हवा का झोंका पहुँचा समुद्र में और एक क्षण में ऐसा हवा का झोंका आया कि जहाज किनारे पर लग गया ।श्रीगुरुदेव से नाभा जी ने नम्र निवेदन किया – प्रभो ! जहाज तो बहुत दूर निकल गया,अब आप कृपा कर के समुद्र को मत निहारिये , आप तो प्रिया-प्रियतम के रूप समुद्र का दर्शन कीजिये ,उसी शोभापूर्ण भगवान् की सेवा में पुनः लग जाइये। यह सुनकर श्री अग्रदेव जी ने आँखे खोली और देखने लगे कि हमारे मन की बात इसने जान ली ये इतना सिद्ध हो गया और हमारी अंतरंग सेवा का पता चल गया, उन्होंने नाभा जी को पूछा ये तुम कैसे जाने ?श्री नाभाजी ने हाथ जोड़कर कहा- जिस अनाथ को आप कृपा करके जंगल से यहाँ लाये ,जिसको आपने बचपन से सीथ-प्रसाद दिया है,ये सब उसी का प्रताप है।

शुद्ध वैष्णव,सन्त-महात्मा द्वारा छोड़े गए भोजन के उच्छिष्ट कभी भी दूषित नहीं होता है, यह अपनी आध्यात्मिक गुणवत्ता को हमेशा बरकरार रखता है। ऐसे भोजन के अवशेषों को छूने से अशुद्ध होने का प्रश्न ही नहीं उठता ,ऐसे महा-प्रसादम खाने से व्यक्ति भौतिकता के स्तर से ऊपर उठ जाता है और शुद्ध हो जाता है ।अगर आप जगन्नाथपुरी जायें वहाँ खिचड़ी का प्रसाद लगता है तो वहाँ ऐसा प्रचलन आज भी है जिसने प्रसाद के लिये वहाँ हाथ पसारा तो उसको भगवान अपना सहारा और दर्शन जरूर देते हैं।वहाँ बिल्कुल प्रसाद नहीं छोड़ा जाता है किसी का छोड़ा हुआ प्रसाद वहाँ दूसरा पा लेता है ।

भगवान ही गुरु रूप से ,सन्त रूप से खाते हुए दिखायी देते हैं और जिसने वो महाप्रसाद पा लिया उसके विचारों में,भावों में सबमें अन्तर आ जाता है और उसने उच्छिष्ट पाया तो उसने अपना अभिमान तो गला ही दिया है तो उसको भगवदप्राप्ति का अधिकार प्राप्त हो जाता है इसलिये महाप्रसाद की बड़ी महिमा है।

श्री राधे

अदिति

मिलन और बिछोड़

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ।।

यह लेख अपने गुरुदेव स्वामी श्री प्रबोधानन्द जी महाराज के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ और धन्यवाद करती हूँ अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी का जिन्होंने हमारा इस लेख में सहयोग किया है।जो गुरुदेव ने हमको बताया है वही हमने इस लेख में लिखने का पूर्ण प्रयास किया है ।

आज मेरे गुरुदेव की पुण्यतिथि है।आज 6 साल यानि 72 महीने यानि 2,190 दिन हो गये हैं।आप लोग सोच रहे होगे ऐसा क्यों लिखा है ,जब गुरुदेव को हमसे मिले हुए एक या दो महीने हो जाते थे ,हमसे रहा नहीं जाता था,तब हम उनको फोन पर ऐसे ही कहते थे ,गुरुदेव इतने महीने हो गये आप को पता है कितने दिन, कितने घंटों से नहीं मिली आपसे ?गुरुदेव हँस जाते थे और बोलते बनायेंगे संयोग। ऐसे देखने से तो 6 साल हो गये हैं बिछुड़े हुए और देखो तो वो 6 पल के लिये भी हमारे गुरुदेव हमसे दूर नहीं है।

गुरुदेव बताया करते हमको:मिलन और बिछोड़ होता है संसार में, जो मिलता है  फिर बिछुड़ जाता है,जो बिछुड़ जाता है फिर मिल जाता है।
जो मिलने में सुख मिलता है ना, बिछुड़ने में भी उतना ही सुख होना चाहिये।मिलने में तो सामने-सामने मिलते हैं, बिछुड़ जाते हैं तो मन में आ जाते हैं।मिलन मन से होता है,बाहर से भले ही हम एक दूसरे से मिलते हैं लेकिन जहाँ मन मिला होता है वहाँ मिले हुए हैं,जिससे हमारा टकराव हो वो बार-बार याद आये तो मन खिन्न होता है,तो संसार में मिलन और बिछोड़ है।हमारे जमाने में एक गाना आया था :आश निराश के दो रंगों से दुनिया तूने सजाई
नय्या संग तूफ़ान बनाया मिलन के साथ जुदाई।भगवान ने द्वन्द बनाये हैं जहाँ बिछोड़ होता है वहीं मिलना होता है,जहाँ मिलना होता है वहीं बिछोड़ होता है।चौबीसों घन्टे एक साथ नहीं रह सकते,चौबीसों घन्टे रहेंगे ना तो एक दूसरे को दूसरा अच्छा नहीं लगता। तो थोड़ी नजदीकी भी थोड़ी दूरी भी तो ऐसे है।
मिलना भी चाहिये और बिछुड़ना भी चाहिये, मिलने का आनन्द तभी आयेगा जब बिछुड़ जायेंगे और बिछुड़ने का आनन्द तभी आयेगा जब मिल जायेंगे।एक भक्ति का सूत्र है बहुत कीमती है:अर बरात मिलवे को निसि दिन, मिलत रहत जाने कबहु मिले ना।अर बरात यानि अंदर से मिलने की उत्कंठा,व्याकुलता तो बनी रहती है,अर बरात मिलवे को निसि दिन और मिलत रहत जाने कबहु मिले ना ,मिलने की उत्कंठा रहती है और मिले भी रहते हैं और ऐसा लगता है जैसे कभी नहीं मिले और आकांक्षा होती है मिलने की ,व्याकुलता होती है दर्शन भी होते हैं और लगता है जैसे कभी नहीं मिले,ये भक्ति का रहस्य है। जब श्यामसुन्दर वृन्दावन छोड़कर मथुरा चले गये तो गोपियांँ उनकी याद में ऐसी हो गयीं थीं कृष्ण की तरह से बोलती,वैसे ही करती जैसे वो किया करते थे,पेड़ों से श्यामसुन्दर समझ कर लिपट जाया करती थीं,पेड़,पौधों,भँवरे आदि से बात किया करतीं, जब कृष्ण वृन्दावन छोड़ कर गये तो वहाँ सन्नाटा छा गया था।उनके अश्रुओं से वहाँ तालाब बन गया। एक सूरदास जी का पद है हमारे गुरुदेव हमको सुनाया करते थे-अब या तनुहिं राखि कहा कीजै।
सुनि री सखी, स्यामसुंदर बिनु बांटि विषम विष पीजै॥
के गिरिए गिरि चढ़ि सुनि सजनी, सीस संकरहिं दीजै।
के दहिए दारुन दावानल जाई जमुन धंसि लीजै॥
दुसह बियोग अरी, माधव को तनु दिन-हीं-दिन छीजै।
सूर, स्याम अब कबधौं मिलिहैं, सोचि-सोचि जिय जीजै॥ गोपियां आपस में कहती है ऐसा शरीर रखकर क्या करें जिस शरीर से श्यामसुन्दर के दर्शन ही ना हों,जब वो दर्शन ही नहीं देंगे तो ऐसे शरीर रखने से क्या फायदा,चलो सखी विष पीसकर पीलें या चलो पहाड़ से चढ़ कर कूद पड़े ,शंकर भगवान के सामने रावण ने दस बार शीश काट कर हवन कुण्ड में दाल दिया,हम भी दावानल अग्नि में जल जायें या यमुना जी में कूद पड़ें तो बिना भगवान कृष्ण के ये जीवन व्यर्थ है बेकार है।जिस शरीर से भगवान के दर्शन ही ना हों ऐसा शरीर बेकार है।गोपियां भगवान को मिलने को तरसती हैं और भगवान उनसे मिले भी रहते हैं ,अंदर से जानती हैं भगवान तो अन्तर्यामी है सबके शरीर में ,घट-घट में व्यापक हैं और मिले भी रहते हैं ऐसा लगता है जैसे भगवान से कभी हम मिले ही नहीं,रोज-रोज मिलते हैं और ऐसा लगता है कभी मिले ही नहीं तो ये है अर बरात मिलवे को निसि दिन, मिलत रहत जाने कबहु मिले ना।

गुरु शिष्य की आत्मा होते हैं और गुरुदेव और शिष्य की लीला होती है,जब गुरुदेव चले जाते हैं ना तो शिष्य को भी ऐसा लगता है ,उसको भी वो विरह सहने से आसान मरना लगता है और वो कहता है गुरुदेव इस संसार में मुझे अकेला छोड़ कर क्यों चले गये हो मुझे भी ले चलो अपने साथ,विरह का दर्द तो वही जानता है जिसने वो दर्द सहा हो,बहुत मुश्किल होता है जैसे- तैसे वो खुद को संभालता है ,वो अपने गुरुदेव के आदेशों का पालन करता है,शिष्य अपने गुरुदेव की बातें स्मरण करके कभी भावुक होता है,कभी हँसता है।उनके विग्रह को देखता रहता है,उनकी बातें दोहराता है, उनकी बातें दोहराने में उसको बहुत आनन्द आता है वो बोल तो रहा होता है अपनी आवाज में ,लेकिन उसके कान में गूंज रही होती है उसके गुरुदेव की वाणी,गुरु वाणी रूप से भी हमारे साथ रहते हैं।वो क्या खाते थे क्या-क्या चीजों को प्रयोग करते थे उनको देखकर भी शिष्य को गुरुदेव की बातें याद आती हैं चाहे वो नारियल पानी हो ,टमाटर की चटनी हो,अमरस हो या ठाकुर को तिलक लगाने वाली डंडी हो ,साबूदाने की खिचड़ी हो ,बादाम की चटनी हो,गोभी का पराठा हो या परवल की सब्जी हो या उनके प्राणधन ठाकुर का विग्रह हो। शिष्य की पहचान ही उसके गुरुदेव से होती है ,गुरु जन्म-जन्म के माता-पिता दोनों होते हैं। तो ऐसे शिष्य भी मिलन और बिछोड़ दोनों का अनुभव करता है पर उसका सदैव उसका उसके गुरुदेव के साथ संयोग ही है।अर बरात मिलवे को निसि दिन, मिलत रहत जाने कबहु मिले ना।ये जो गुरु शिष्य का नाता है वो काल से परे ,शरीर से परे होता है।भगवान ही सगुण रूप धारण कर हमारे जीवन में गुरुदेव बन कर आते हैं ।

दादा बताते हैं:भगवान जब अवतार लेते हैं तो एक ही जगह रहकर वहीं रहकर लीलाओं का संवर्धन करते हैं और जब भगवान शरीर वाली लीला समेट लेते हैं तो वो असीम हो जाते है ,कहीं भी प्रकट हो सकते हैं ,ऐसे ही गुरुदेव सशरीर होते हैं तो सीमित होते है ,एक ही जगह प्रकट होकर दिखायी देते हैं जब वो भी लीला समेट लेते हैं तो वो भी असीम होते हैं,तब हर जगह प्रकट हैं।

श्री राधे

प्रबोधसुधा वर्षण

कविता-अच्छे मुझे तुम लगते हो

एक छोटी सी कविता अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी के लिये।

शब्द की है कमी ,भावना है टूटी-फूटी
कर लो स्वीकार मेरी ये कविता छोटी-मोटी

दादा बहुत ही अच्छे मुझे तुम लगते हो
कान्हा को तुम बहुत सुन्दर से सजाते हो
मुझमें इतना कैसे विश्वास भरते रहते हो
मुझको चिंता नहीं करना कहते रहते हो
हमको हमसे ही तुम मिलाते रहते हो
खुद से खुद की पहचान तुम करवाते रहते हो
कथा सुना कर तुम रस पान कराते रहते हो
नये-नये लिखने को टौपिक हमको बताते रहते हो
बताते हो गूढ़ विषय जाने कहाँ से निकाल कर
समझाते हो उनको अपना कीमती समय निकालकर
गुरुदेव की सिखायी बातें हमको तुम सिखाते हो
मन की गुत्थियों को कैसे पल में तुम सुलझाते हो
मेरे जीवन में तुम दादा बहुत अहमियत रखते हो
बात करने को तुमसे मन मेरा फुदकता रहता है
ना करूं जब बात तो दिन अधूरा सा लगता है
कैसे धन्यवाद करूं कम अल्फाज ये लगते हैं
फिर भी तुमको हम हृदय से आभार प्रकट करते हैं
खुश हैं कान्हा मुझसे तुमको भी जीवन में भेजा है
गुरुदेव के संग तुम्हें भी अपने जीवन में पाया है।

दादा की बच्ची
अदिति

कविता-जीवन में खुशियाँ फैलायी तुमने

Swami Shri Prabodhanand Ji Maharaj

यह कविता मेरे प्यारे गुरुदेव स्वामी श्री प्रबोधानन्द जी के चरणों में समर्पित है।

प्यारे गुरुदेव ये कविता आपके लिये:

प्यारे गुरुदेव…………….
जीवन में खुशियाँ फैलायी तुमने
भरा जीवन ज्ञान के प्रकाश से तुमने
मिटाये सारे भ्रम भ्रान्तियाँ तुमने
कथा रस का पान कराया तुमने
मेरी डोर संभाली तुमने
जीवन को प्रेम से भरा तुमने
मेरे सुख- दुख बाँटे तुमने
आनन्द की अनुभूति करायी तुमने
जीवन की सही राह दिखायी तुमने
शरीर नहीं हैं हम ये बताया तुमने
फिर छोड़ दिया एक दिन शरीर तुमने
फिर भी अपना अहसास कराया तुमने
काल से परे होता गुरु-शिष्य का नाता ये बताया तुमने
रोती हुई अदिति को हँसाया तुमने
दिया है बहुत लाड-प्यार तुमने
मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा तुमने
याद आती हैं बहुत यादें जो दी हैं तुमने
जीवन को खुशियों से भर दिया तुमने
मिलन-बिछोड़ मन से होता है ये बताया तुमने
दूर नहीं हो पास हो मेरे ये जताया तुमने
हर बार मुझको सम्भाला तुमने
जीवन में खुशियाँ फैलायी तुमने

Miss you so much Gurudev
तुम पास भी नहीं हो,तुम दूर भी नहीं हो ।

आपकी पतंग
अदिति

मन के स्त्रोत को खोजो

अखण्ड-मण्डलाकारम् व्याप्तम् येन चराचरम्।
तत्पदम् दर्शितम् येन तस्मै श्री गुरवे नमः ।।

बंसी विभूषित करात्, नवनीरद आभात्,पूर्णेन्दु सुंदर मुखात्, अरविंद नेत्रात्,पीताम्बरात्,
अरुणबिंबफल अधरोष्ठात्,
कृष्णात्, परम किम् अपि तत्वम्, अहम् न जाने…”

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।

यह लेख अपने गुरुदेव स्वामी श्री प्रबोधानन्द जी महाराज के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ और धन्यवाद करती हूँ अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी का जिन्होंने मुझको यह गुरुदेव की बतायी हुई बात हमको समझाई है जिसको इस लेख में लिखा गया है।

गुरुदेव पूछते हमको कि मन क्या होता है? फिर वो बताते मन वो है जहाँ हमको विचार आया करते हैं। ये मन है ना इसकी सही पहचान नहीं है तो दादा हमको बताये कि दुनिया का सर्वप्रथम विचार क्या होता है?किसी भी व्यक्ति को सबसे पहला विचार क्या आता है? सबसे पहले विचार आता है मैं हूँ।विचार की शुरुआत होती है मैं से फिर आगे लम्बी चौड़ी लाईन लग जाती है विचारों की पूरे दिन।सुबह जब उठते है मैं उठ गया अब ,हालाकि मैं सोता जागता नहीं है जब अहंकार उठ जाता है वो ही ये मैं कहलाता है जो बोलता है मैं उठ गया,मन में सबसे पहले विचार अहम को होता है,अब देखो कहीं जाओ तो कहोगे मैं कहाँ आ गया,मैं उठ गया,मैं यहाँ गया था ऐसा बोलते हैं ना, विचार तो मैं को लेकर ही आता है। एक मन का व्यवहार है देहाकार वृत्ति वाला,देह में मैं करके बैठता है ,आधा मन तो इधर रहता है और आधे में संसार को भीतर बिठा लेता है। आधे में देह में मैं करके बैठता है ,ये ही जो मन है अपने बारे में अपनी अभिन्न कल्पना करता है,संसार की अपने से भिन्न कल्पना करता है और यही मन जो है एक काल्पनिक ईश्वर को जन्म देता है जिसकी कहता है मैं भक्ति करता हूँ ।ये पूरा मन को हम और अपने को भी सही समझ लें कि शरीर,इन्द्रियाँ,मन,बुद्धि आदि मैं नहीं हूँ,ये देह मैं नहीं हूँ,मैं तो इसको जानने वाला साक्षी हूँ,चेतन हूँ तो फिर संसार भी कहाँ रहेगा,जब ये ही नहीं रहेगा तो जो ईश्वर की हमने कल्पना कर रखी है तो ईश्वर भी नहीं रहेगा।

तो जब मन ही नहीं रहेगा तो संसार भी नहीं रहेगा तो फिर काल्पनिक ईश्वर भी नहीं रहेगा ,क्योंकि जब मैं ही भगवत रूप हो गया,मैं ही ब्रह्म हो गया,मैं ही आत्मा हो गया तो फिर जगत भी ब्रह्म सिद्ध होगा ।मन में जो भरा हुआ है ना, वो सब मैं ही ब्रह्म है जिसने सोच रखा है जैसे नदी में जल की तरंग है ऐसे ही मन में मैं और ये संसार तरंग रूप से दिखायी देते हैं कोई तरंग छोटी ,कोई तरंग बड़ी तो देह में जो मैं करके बैठा है वो छोटी तरंग है संसार को ऐसा मान सकते हो बड़ी तरंग है ,हैं दोनों ही तरंगें।जल ज्यों का त्यों है।आत्मा वैसा का वैसा है, मन ने ही ऐसी रचना कर दी है।

मन ही संसार की कल्पना कर लेता है ,मन ही भगवान की कल्पना कर लेता है फिर जब काल्पनिक ईश्वर के साथ जब हम व्यवहार करते हैं ना तो क्या होता है हम सो गये तो भगवान भी सो जाते है,हम स्वप्न देख रहे तो भगवान गायब हो गये और हम जग रहे हैं ,व्यवहार कर रहे हैं तो भगवान दिखता ही नहीं है।थोड़ी देर के लिये पूजा-पाठ करने बैठे तो थोड़ी देर भगवान की भावना कर लेते हैं तो ये परिछिन्न भावना है पूर्ण भावना नहीं होती है।तो मन से अहम ने जो कल्पना कर रखी है वो सच्चा ईश्वर नहीं है वो काल्पनिक ईश्वर है वो स्वप्न,सुषुप्ति आदि में वो दिखायी नहीं देता है इसलिये हमको ये संशय होता है कि ये भगवान कहाँ है,इतने दिन से लगे हुए हैं फिर भी हमको दर्शन नहीं हुए हैं न ज्ञान हुआ है।

क्यों नहीं मन भगवान से जुड़ने देता है क्योंकि इसका विचार ही उल्टा होता है विचार इधर चला तो आधा मन उधर भागने लगता है फिर अगर बुद्धि से सोचें तो बुद्धि से हम पहुँच नहीं सकते,हमारी पहुँच नहीं हो सकती फिर हम सोचते है कि मैं ब्रह्म कैसे हूँ?संसार परमात्मा का रूप कैसे है?और जानने की कोशिश करते हैं बहुत,पढ़ते है,सुनते हैं तो भी क्यों नहीं पहुँचते है? क्योंकि बुद्धि की पहुँच ही यहीं तक है शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियों, संसार तक।परमात्मा तक बुद्धि की पहुँच नहीं हो सकती है,इसलिये हमको परमात्मा होते हुए भी प्रतीत नहीं होता है,मतलब दिखता नहीं है तो वो ज्ञान चक्षु से ही दिखता है ,ज्ञान चक्षु गुरुदेव देते हैं।
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः।।15.10।।
।15.10।।शरीरको छोड़कर जाते हुए या दूसरे शरीरमें स्थित हुए अथवा विषयोंको भोगते हुए भी गुणोंसे युक्त जीवात्माके स्वरूपको मूढ़ मनुष्य नहीं जानते? ज्ञानरूपी नेत्रोंवाले ज्ञानी मनुष्य ही जानते हैं।
विमूढ़ लोग नहीं देखते ,विमूढ़ का अर्थ होता है जिनका मन मोह से ग्रसित हो गया है,अपने को ही कर्ता,भोक्ता मानता है जो बुद्धि का उलटा प्रयोग करता है,सही जगह बुद्धि को नहीं लगाता और मूर्खता करता है फिर पुनर्जन्म को प्राप्त होता है और नीची ऊँची योनियों में जाता है।
मन की स्थिति को सही-सही करके जान लें ना और इसके बिन्दु को तलाश लें कि मैं निकला कहाँ से?
देखो जब अज्ञान सो गया हमारा यानि जो नकली मैं बना था अहम जिसको मैं मैं मानता था ,मेरी अविद्या थी वो सो गयी,फिर अविद्या जग गयी तो वो ही मैं और संसार को दिखा देती है।इस अविद्या की निवृत्ति के उपरांत उपलक्षित है जो ये ईश्वर है यही हमारी आत्मा है,जिसकी पहुँच बुद्धि नहीं कर पाती है ,वही ईश्वर है ,वो ही हमारी आत्मा है,ज्ञान चक्षु से इसको देखा जाता है,बार-बार इस पर पैनी निगाह रखनी पड़ती है,बारीक नजर,बारीक दृष्टि,निरंतर चिंतन करना पड़ता है कि मैं निकला कहाँ से,ये आधा मन देह में लगाया आधा मन संसार में लगाया ये निकला कहाँ से तो निकला तो ये परमात्मा से ही है ऐसे विचार करते है मन चुप हो जाता है ,मन चुप होते ही भगवान का बोध हो जाता है।
हमारे गुरुदेव कहा करते थे :इस दोहे के लेखक तो नहीं पता है पर वो कुछ इस तरह है
यह संसार स्वप्न वत मिथ्या,मनो मात्र बतलाईये
मन अभाव कहाँ हैं दुनिया ये हमको दिखलाईये
तो मन का अभाव करो तो दुनिया नहीं है तो कौन है परमात्मा ही तो है।
जैसे गहरी नींद काल में ज्ञान नहीं रहता ना उसको अज्ञान अवस्था बोलते हैं लेकिन जगते में सोते हुए से हो जायें,अविद्या को सुला दे और गलती को सुधार लें तो हम वही हैं जिसकी हम तलाश कर रहे वो ही परमात्मा।

ये मन को सही समझ लें और बुद्धि में निर्णय कर लें कि ये सब मैं नहीं हूँ मन, बुद्धि,शरीर,इन्द्रियाँ आदि। ये सब मैं नहीं हूँ,मन से जो ईश्वर की कल्पना कर रखी है वो भी सच्चा नहीं है ,ईश्वर सच्चा कौन सा है ,जो बुद्धि में जाकर चुप हो जाये वही ईश्वर है,वही हमारी आत्मा है,वही गुरुदेव हैं,वही परमात्मा है।

श्री राधे

प्रबोधसुधा वर्षण

दर्शन मन से होता है।

अखण्ड-मण्डलाकारम् व्याप्तम् येन चराचरम्।
तत्पदम् दर्शितम् येन तस्मै श्री गुरवे नमः ।।

बंसी विभूषित करात्, नवनीरद आभात्,पूर्णेन्दु सुंदर मुखात्, अरविंद नेत्रात्,पीताम्बरात्,
अरुणबिंबफल अधरोष्ठात्,
कृष्णात्, परम किम् अपि तत्वम्, अहम् न जाने…”

यह लेख अपने गुरुदेव स्वामी श्री प्रबोधानन्द जी महाराज के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ और धन्यवाद करती हूँ अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी का जिन्होंने ये विषय हमको बताया है जिसको इस लेख में लिखा गया है।

दादा बताते हैं ये सारा संसार हमारे मन में ही बसा हुआ है।देखो आप मन्दिर गये वहाँ भगवान आपको दिखें ना दिखें लेकिन हमारा मन तो वहाँ गया ना ?सारा संसार मन में ही भरा होता है । अब कोई कहे मन्दिर में कोई बन्दर आ जाये या चूहा आ जाये तो भगवान के उसको दर्शन नहीं होंगे क्योंकि उसका मन भगवान में नहीं उछल कूद में लगा है,भोजन की तलाश में लगा है,वो संयोगवश आ गया है।जिसको मन में है भगवान के दर्शन करने आया है उसको भगवान जरूर दिखते हैं।कोई कहे मूर्ति है, कोई कहे चित्र है।अच्छा आप अपनी तुलना अपनी तस्वीर से करके देखो ,क्या आप अपनी तस्वीर देखकर कह सकते हो ये आप नहीं हो? आप कभी नहीं कह सकते आप नहीं हो ,आप ये ही कहोगे ये मेरी ही तस्वीर है।जब भगवान को देखते हैं तब ऐसा क्यों आता है ये मूर्ति है या चित्र है, ऐसा इसलिये क्योंकि ये मन की बात है ।जब आपके पास नोट होते हैं सौ रूपये का,दो सौ रूपये का,दो हजार का तब तो आप नहीं कहते हो ये कागज है वो कागज ही तो होता है तब तो उसको आप बहुत सम्भाल कर रखते हो पर जब वहीं बात भगवान की आती है तो कहते हो फोटो है या मूर्ति है।जब कागज धन हो सकता है तो क्या भगवान प्राणधन नहीं हो सकते हैं ?अब चूहा मन्दिर में दर्शन करने के लिये तो नहीं गया वो तो खाने-पीने के लिये गया है तो उसको भगवान नहीं दिखेंगे क्योंकि ये मन का विषय है,ज्ञान का विषय है,प्रेम का विषय है।हम अपनी तस्वीर को अपनी प्रतीति मान सकते हैन लेकिन भगवान की मूर्ति और चित्र को भगवान की प्रतीति नहीं मानते हैं।दर्शन मन से होता है।

श्री राधे

प्रबोधसुधा वर्षण

जन्म मात्र प्रतीति

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ।।

यह लेख अपने गुरुदेव स्वामी श्री प्रबोधानन्द जी महाराज के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ और धन्यवाद करती हूँ अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी का जिन्होंने मुझको यह गुरुदेव की बतायी हुई बात हमको बतायी है जिसको इस लेख में लिखा गया है।

ये सारा संसार हमारे मन में बसा हुआ है,हमको अपने खुद की पहचान नहीं है जिसके कारण ही सब सुख-दुख,जन्म और मृत्यु है ।पर क्या सच में जन्म -मृत्यु है?मरना होता तो फिर जन्म क्यों होता एक ही बार में झंझट खतम हो जाना था ना पर ऐसा तो नहीं होता है मरने वाला फिर जन्म ले लेता है तो मरा कौन? गुरुदेव हर बार कहते :बड़ा भारी अनर्थ हो जायेगा अगर खुद को जाने बगैर चले गये इसलिये उस मैं को जानिए।हम सबको जानते हैं मगर स्वयं को नहीं जानते हैं,उस स्वयं को पहचानिये।
आपका जीवन सफल हो जायेगा।दादा हमको बताते हैं:जगना,स्वप्न देखना और सुषुप्ति का होना,आदि कुछ का भी होना बिना असली मैं बिना परमात्मा के नहीं हो सकता।कहीं भी होंगे ना आपका होना अनिवार्य है,जगने में भी आपका होना अनिवार्य है,स्वप्न में भी आपका होना अनिवार्य है,सुषुप्ति में भी आपका होना अनिवार्य है ,जगत को देखें तो भी अनिवार्य हैं,जन्म-मृत्यु को सिद्ध करें तो भी अनिवार्य है ये अनिवार्य ही परमात्मा है।

अपनी सच्ची पहचान ही परमात्मा की पहचान है और अपनी पहचान हमने जो मान रखी है वो हमारी पहचान हो ही नहीं सकती। अच्छा देखिये जब हम जगने को देखते हैं तो अपने शरीर को भी देखते हैं और संसार को भी देखते हैं।शरीर और संसार दोनों दिखते हैं और जब स्वप्नवास्था आ जाय तो वहाँ न ये संसार और न ये शरीर है वहाँ दूसरा संसार और दूसरा शरीर दिखता है हमारा सपने में ।कोई सपने में चाकू मार दे पेट में तो बाहर देह में कुछ नहीं होता है और सपने में ये संसार ये शरीर नहीं रहता है और जो स्वप्न में जो दूसरा संसार दिखा,दूसरे हम बने वो सुषुप्ति काल में नहीं रहता,गहरी नींद काल में कुछ भी नहीं होता सब समाप्त हो जाता है।इसका अर्थ यह हुआ जो भी दृष्टिगोचर होता है जिसको भी मैं और मेरा अपना मानते हैं वो वास्तविकता में आने-जाने वाले हैं वास्तविक नहीं हैं।इसमें तो कोई संदेह नहीं होना चाहिये।अब जो इसमें रहने वाला है ये एकरस परमात्मा ही है ।जगते में भी वही,सपने में भी वही,सुषुप्ति में भी वही है।ये भ्रम अगर मिट जाये कि ये अवस्थाएँ हमारी नहीं हो सकती हैं क्योंकि जिसकी वजह से जागृत दिखायी देता है अगर वो न हो तो जागृत किसका? और वो सोता नहीं है,वो जागता नहीं है तो ये अवस्थाएँ किसकी सिद्ध होंगी? तो ये मन- बुद्धि की अवस्थाएँ सिद्ध होंगी।हमारी ये अवस्था हो नहीं सकती हैं।स्वप्न कोई हमारे से अलग चीज नहीं है,उसका साक्षी भी मैं ही होता हूँ,जागृत का भी साक्षी मैं ही होता हूँ।मैं के बिना ना तो ना सुषुप्ति हो सकती है,ना स्वप्न होगा,ना जागृत होगा,ना जगत होगा ना जीव होगा,परमात्मा की सिद्धि आप से ही होती है वो अभिन्न है ।माया से ही दिख रहा होता है मैं जग रहा हूँ।ना परमात्मा आपसे भिन्न हो सकता है,ना आपका आत्मा आपसे भिन्न है,ना ये अवस्थाएँ आपसे भिन्न है,ये ही सर्वव्यापी आत्मा है ये ही परमात्मा है।

अब देखो ये शरीर दिखायी दे रहा है हमारा यहाँ पर,सपने में दूसरा हो गया मतलब शरीर तो बदल गया ये वाला शरीर से हमारा जन्म हुआ , प्राप्त हुआ दिखायी दे रहा है और सपने में दूसरा दिखायी दे रहा है तो ये तो जन्मने मरने वाला सिद्ध हुआ । इस शरीर को ही देख लो बचपन में कुछ और था,और बड़े हुए तो कुछ और हो गया ,बुढ़ापे में कुछ और होता है।देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।2.13।।जैसे इस देह में देही जीवात्मा की कुमार? युवा और वृद्धावस्था होती है? वैसे ही उसको अन्य शरीर की प्राप्ति होती है धीर पुरुष इसमें मोहित नहीं होता है।।2.13।।यह शरीर हर सात साल में नया होता है।ऐसे ही जागृत,स्वप्न,और सुषुप्ति में बदलता रहता है,जीवित रहते ही मर रहा रोज ।ये ऐसे कि इसी जन्म में जीवित रहते अपना दूसरा शरीर देखता है तो देह दूसरी मिलती है और गहरी नींद सो जायें तो न ये देह न तो वो देह बिल्कुल कोई सी भी देह नहीं रहती है तो देह को सत्य कैसे माने? उमा कहउँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजनु जगत् सब सपना॥भावार्थ:हे उमा! मैं तुम्हें अपना अनुभव कहता हूँ- हरि का भजन ही सत्य है, यह सारा जगत् तो स्वप्न (की भाँति झूठा) है।ये संसार झूठ ही तो है आप अपने कल जो दिन बीत गया उसको देखो उसकी स्मृति सपने के जैसे ही तो आयेगी,या किसी को याद करो वो भी तो वैसे ही याद आयेंगे जैसे सपने आते हैं हम उठ कर बताते हैं ये हमने देखा।कोई आप सपना देख रहे हो और उस सपने में किसी ने आपका गला पकड़ लिया आप चिल्ला रहे हो बचाओ-बचाओ किसी ने आपको सोते से उठा दिया उसी वक़्त आप बोलते ओह ये सपना था।ये जगत भी मात्र स्वप्न की भांति है गुरुदेव हमको जगा देते हैं ,बताते हैं जो देख रहे हो वो सपना ही है ,विचार ही है।सपने के अंदर सपना कभी देखा है आपने? वैसे ही है ये हमको स्वप्न आते हैं।जन्म की प्रतीति होती है। एक बार देवर्षि नारद द्वारका जाते हैं और भगवान कृष्ण से पूछते हैं ये माया क्या है? भगवान कहते है माया इस ब्रह्म की रचना शक्ति है।नारद जी कहते हैं ये तो मैं भी जानता हूँ प्रभु पर वह है क्या? तो भगवान कृष्ण बोलते हैं चलो थोड़ी देर बाहर घूम कर आते हैं घूमते घूमते तो समुद्र से मरुस्थल की ओर पहुँच जाते है चलते-चलते नारद जी थक जाते हैं और कहते अब और नहीं चल पाऊँगा ,फिर कहते है जब अर्जुन ने शस्त्र रख दिया तो आपने उसको जीवन का रहस्य बता दिया और मैं आपके साथ यहाँ तक चला आया और आपने अभी तक माया का रहस्य नहीं बताया।भगवान कृष्ण कहते है इस मरु भूमि में मुझे पानी पिला दो मैं तुम्हें माया का रहस्य बता देता हूँ,नारद जी पानी ढूंढते हुए एक राज्य में पहुँचते है वहाँ वो एक लड़की देखते हैं वो उनको पानी पिलाती है वो मोहित हो जाते हैं और पीछे -पीछे चले जाते हैं उस लड़की के पिता राजा होते हैं और वो उस लड़की का हाथ उन राजा से मांग लेते हैं वो राजा कहते हैं आप सब जगह घूमते हैं मेरी बेटी कहाँ-कहाँ घूमेगी आपके साथ आपको हमारे साथ ही रहना पड़ेगा नारद जी मान जाते हैं उनका विवाह हो जाता है,कुछ समय बाद बाल-बच्चे भी हो जाते हैं ,खूब ऐश्वर्य से भर जीवन वो जी रहे होते हैं फिर एक दिन उनके ससुर जी मर जाते हैं अब नारद जी राजा बन जाते हैं और अपने बच्चों को राजनीति सिखाने लग जाते है और अब उन्होंने तो कभी शस्त्र चलाने सीखे नहीं थे तो दूसरा राज्य उनके राज्य पर आक्रमण कर देता है और नारद जी हार जाते हैं उनको उनके पत्नी और बच्चों सहित राज्य से निकाल दिया जाता है अब वो दर-दर भटकते हैं भूखे प्यासे होते हैं ,सामने नदी होती है नारद जी कहते है नदी पार करके एक नगर है वहाँ खाने-पीने को मिल जायेगा और नदी पार करने के लिये एक नौका होती है वो अपने परिवार सहित उस नौका में बैठ जाते है उनको नौका चलानी भी नहीं आती थी,नौका पलट जाती है पत्नी और बच्चे डूब जाते है सिर्फ वो ही बचते हैं अब वो विलाप कर रहे होते हैं ,चिल्ला रहे होते हैं तभी भगवान श्री कृष्ण उनको अवाज लगाकर उनको जगा देते हैं।नारद जी चौंक जाते हैं पूछते है मै कहाँ हूँ प्रभु,भगवान बोलते हैं तुम पानी लेने गये थे पानी कहाँ है पिछ्ले एक घन्टे से मैं तुम्हारी यहाँ प्रतीक्षा कर रहा हूँ,नारद जी आश्चर्य से कहते हैं एक घन्टा,ये सब-कुछ एक घन्टे में ही घटित हो गया?एक घन्टे में मैंने पूरा जीवन देख लिया प्रभु।कृष्ण भगवान कहते हैं बात समझ में आयी देवर्षि?यही माया है।

ऐसे ही ये जन्म भी मात्र प्रतीति हैं जब हम तीनों जागृत,स्वप्न और सुषुप्ति का समन्वय कर लें तो सिर्फ परमात्मा ही जागृत में देखने वाला,स्वप्न को देखने वाला और सुषुप्ति का भी साक्षी है।सुषुप्ति का भी तो कोई साक्षी होगा ना तो ये तीनों दशा,भूत,भविष्य,वर्तमान,काल बोलें,देश बोलें ।यहाँ देश का मतलब हर एक व्यक्ति का अन्त:करण है,हर एक व्यक्ति को ऐसे ही दिखता है,हर एक को स्वप्न आता है,हर एक व्यक्ति सोता है,जब देश,काल और वस्तु मेरा ही नहीं है तो औरों का कैसे होगा? तो सब परमात्मा ही तो सिद्ध हुआ ना।आत्मा नहीं कहीं आता है न ही जाता है शरीर का जन्म भी प्रतीति मात्र है,जन्म होता ही नहीं है। शरीर वास्तविक नहीं है क्योंकि स्वप्न में बदल गया,गहरी नींद में तो बिल्कुल ज्ञान न रहा,तो सब ये प्रतीति है जन्मना -मरना ।वास्तव में अजर अमर अविनाशी है और हम परमात्मा के बिल्कुल शाश्वत अंश हैं।वो ही चेतन हैं वो ही भगवान प्रेम करने योग्य हैं।

श्री राधे

प्रबोधसुधा वर्षण

त्रिशक्ति उपासना

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ।।

यह लेख अपने गुरुदेव के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ और धन्यवाद करती हूँ अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी का जिन्होंने मुझको यह गुरुदेव की बतायी हुई बात हमको बतायी है जिसको इस लेख में लिखा गया है।

भगवान ने जीव को भरपूर प्रेमाशक्ति दी है आप किसी भी जीव को देख लो चाहे वो मनुष्य हो,साँप हो,बिच्छु हो,मछली हो कोई भी सबमें प्रेम होता है पर मनुष्य को भगवान ने विवेक भी दिया है।मनुष्य देह बहुत ही दुर्लभ है अब वो चाहे तो इसका सदुपयोग कर सकता है या दुरुपयोग । जब जन्म-जन्मान्तर के बाद जब भगवान कृपा करते हैं तो उनको सत्संग सुलभ कराते हैं और गुरुदेव से मिला देते हैं और गुरुदेव ज्ञानशक्ति देते हैं आपको आपकी खुद से पहचान कर देते हैं।

भगवान ने और गुरुदेव ने कृपा में कोई कसर नहीं छोड़ी है,गुरुदेव ने अपना पूरा ज्ञान उड़ेल दिया भगवान ने पूरा प्रेम उड़ेल दिया है अब उसको सही समझने की जरूरत हमारी है और जो क्रियाशक्ति हम उसका सही संयोजन कर लें,क्रिया या तो भगवदप्रेमी से हो या सबमें भगवान को देखते हुए निमित्त हो ये तीनों शक्ति भगवान से मिलाने वाली हैं।प्रेमाशक्ति भगवान ने भरपूर दी,ज्ञानशक्ति गुरुदेव ने पूर्ण कर दी है और क्रियाशक्ति में हमको कार्य करने की जरूरत है मैं और मेरे लिये न करके और औरों के लिये भगवान का सबको स्वरूप मानकर के करें ।सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥3॥भावार्थ :हे हनुमान! अनन्य वही है जिसकी ऐसी बुद्धि कभी नहीं टलती कि मैं सेवक हूँ और यह चराचर (जड़-चेतन) जगत्‌ मेरे स्वामी भगवान्‌ का रूप है॥3॥ये संसार है भी और नहीं भी है ,लोग नहीं हैं सब भगवान के ही रूप हैं,अगर हमारी क्रिया इस दृष्टिकोण से होने लगे तो इसी जीवन में इसी समय उद्धार बिल्कुल तत्काल हो जाये। गुरुदेव कहते प्रेम करे बिन कोई रह नहीं सकता,प्रेम रूप से जहाँ भी जो भी प्रकट होते हैं ठाकुर जी ही प्रकट होते हैं।माँ के हृदय में भी प्रेम आता है बच्चे के लिये तो वो भी भगवान का दिया होता है औरों के बच्चे से क्यों नहीं अपने बच्चे से ही क्यों?कई बार अपने नहीं होते तो औरों को गोद ले लेते हैं इच्छा करती है तो ऐसा क्यों? क्योंकि ये प्रेम शक्ति है न वो परिपूर्ण भगवान ने दी है और हम उसका दुरुपयोग करते हैं, मोह करते हैं, प्रेम नहीं करते हैं और मोह करने लगते हैं अगर प्रेम शक्ति का सही संयोजन करें और मोह ना करके प्रेम करें तो कहना ही क्या है प्रेम का मतलब देना ,मोह का मतलब लेना।प्रेम कभी पांव की बेड़ि नहीं बनता है,प्रेम पंख देता है,स्वतंत्रता देता है।अपनी प्रसन्नता के लिये एक मछली को पानी से निकाल कर खूब गहने पहना दो तो क्या वह खुश रहेगी? कभी नहीं, उसकी प्रसन्नता पानी में रहने से ही है।प्रेम में कोई शर्त नहीं होती है और जो क्रिया शक्ति होती है इन्द्रियाँ,मन,बुद्धि दी है न तो ये कार्य करने के लिये भगवान ने दी है।इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतनाधृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्।।13.6।अर्थ:इच्छा? द्वेष? सुख? दुःख? संघात? चेतना (प्राणशक्ति) और धृति — इन विकारोंसहित यह क्षेत्र संक्षेपसे कहा गया है। तो भगवान ने कार्य करने के लिये यह चेतन शक्ति दी है हम इसका भी दुरुपयोग करते हैं ।अपने लिये लगे रहते हैं,अपने मन की संतुष्टि के लिये लगे रहते हैं,हम अगर अपने मन की संतुष्टि में लगे न रहकर तद्रूप भगवान देखते हुए उनकी सेवा में लगा दें तो क्रिया शक्ति जो है भगवान से मिला देती है,सेवा ही तो प्रेम है और ज्ञानशक्ति में गुरुदेव देते हैं स्वयं को पहचानने की शक्ति ,जितने भी भ्रम,भ्रान्तियाँ हैं उनको मिटा देते हैं ,जीवन को सार देते हैं ये शक्ति गुरु देते हैं।इस ज्ञान शक्ति से भी परमात्मा की प्राप्ति होती है।

इन तीनों साधना का सामन्जस्य सही हो जाये,ज्ञान से अपने को पहचानने लगें अपने भ्रम,भ्रान्तियों को काटने लगे,क्रियाशक्ति से दूसरों की सेवा भगवदरूप मानकर होने लगे और प्रेम परम प्रेमास्पद से होने लगे,सबसे ज्यादा प्रेम करने योग्य तो वही भगवान हैं रामहि केवल प्रेम पियारा प्रेम करना हो तो कान्हा से करें,दूसरा नम्बर सन्त महात्माओं का भी है लेकिन सन्त का उददेश्य भी केवल कान्हा ही होते हैं,सन्त इसलिये ही होते हैं..कान्हा से प्रेम करने के लिये ।तो हमें भगवान श्री कृष्ण से प्रेम करना चाहिये जो सदा रहने वाले हैं।जो सदा रहने वाला नहीं होगा उससे प्रेम करेंगे तो प्रेम की परिभाषा में नहीं आयेगा।प्रेम होता है पूर्ण और पूर्ण से हम करें और पूर्ण सिर्फ भगवान ही हैं।ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥वृहदारण्यक उपनिषद । अगर हमें प्रेम वस्तु से या अन्य से हो तो या तो वो नहीं रहेंगे या प्रेम करने वाले नहीं रहेंगे।तीनों शक्तियों का सामन्जस्य होने से बात बनती है,खाली एक से काम नहीं चलता है।सिर्फ ज्ञान नहीं,सिर्फ भक्ति नहीं और सिर्फ कर्म भी नहीं। ज्ञान,भक्ति और कर्म तीनों का संयोजन हो और लक्ष्य भगवान हो तो जीवन निहाल हो जायेगा।

श्री राधे

प्रबोधसुधा वर्षण

सविषय चेतन का निषेध और भक्ति

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ।।

यह लेख अपने गुरुदेव के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ और धन्यवाद करती हूँ अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी का जिन्होंने मुझको यह गुरुदेव की बतायी हुई बात हमको बतायी है जिसको इस लेख में लिखा गया है।

वेदान्त ग्रंथों में दो तरीके की बात होती है एक होता है असली चेतन,एक होता है नकली चेतन तो इस नकली चेतन को ही सविषय चेतन कहते हैं।हम आँखों से कोई दृश्य देखते हैं तो हमारे लिये वो विषय होता है इसको सविषय चेतन कहते हैं।वेदान्त की भाषा में कहते हैं यही वो परमात्मा है और उसकी जो प्रतीति है वो हमारा अंत:करण है, जो अंत:करण में प्रतीति है उसमें मैं बुद्धि करने वाले को यहाँ सविषय चेतन बोलते हैं ।वो क्या करता है ज्ञानेन्द्रियों से अपने-अपने विषय को गृहण करता है और फिर वो बोलता है मैं देखता हूँ,मैं बोलता हूँ,मैं सुनता हूँ,मैं खाता हूँ,मैं सूँघता हूँ और ऐसे ही वो अपने से जुड़ कर कहता रहता है अच्छा एक बात बतायें अगर ये जो विषय हैं अगर दृश्य ना होवे तो क्या आँख नहीं हैं? मानो गन्ध ना हो तो क्या नासिका नहीं है?इसको कहते है सविषय चेतन यानि आँख से जुड़े मन,हम बोलते हैं हमने देखा है,हमने सुना है,हमने खाया ।

इसको वेदान्त स्वीकार करता है फिर वो कहते हैं मन और बुद्धि से अपने इतने टुकड़े करो -इतने टुकड़े करो कि एक-एक चीज़ में अपने को देखो,तो क्या देखना होगा कि आँख में भी मैं हूँ,आँख से ही मैं जुड़कर देखता हूँ,हाथ से मैं काम करता हूँ,त्वचा (स्वेन्द्रिय )से मैं स्पर्श का अनुभव करता हूँ ,जीभ से स्वाद का अनुभव करता हूँ ,वाणी से बोलने का अनुभव करता हूँ तो ये मैं है ये सबमें मौजूद है इन्द्रियों में, पूरे शरीर में मौजूद है।अब बोलो कैसे? तो देखो त्वचा स्वेन्द्रिय है ये सर्दी -गर्मी का कमर पर भी अनुभव करती है,पैर पर भी अनुभव करती है,हाथ में भी अनुभव करती है।ऐसे ही आँखें सूक्ष्म और वृहद विषयों को अनुभव करती हैं ।देखने वाले आप ही होते हैं लेकिन आपकी निगाह अपने ऊपर नहीं होती है,वेदान्त में बोलते है इसका वाद करिये। विषय ना हो तो इन्द्रियाँ हैं,इन्द्रियाँ नहीं है तो अंत:करण है।सुषुप्ति काल में इन्द्रियाँ नहीं रहती अंत:करण रहता है वो भी दृश्य देखता है,सोते हुए काल में ये सब भी नहीं रहता है मन भी लीन होता जाता है,अंत:करण भी लीन होता है तो भी हमको हमारा वहाँ पता नहीं चलता है ।इसको कहते हैं कि जागृत काल में भी बुद्धि को इतना सूक्ष्म करो कि इस आभासिक चेतन या सविषय चेतन को निर्विकार चेतन में लीन कर दो जैसे समुद्र की तरंगें उठती है फिर पानी में लीन हो जाती हैं ऐसे ही इस अंत:करण को जो सविषय चेतन है इसको निर्विषय चेतन में लीन कर दो।निर्विषय चेतन का मतलब देखते समय भी ये विचार करना चाहिये कि मैं नहीं देखता हूँ देखने वाला देखता है तो उसमें अंत:करण लीन हो जाता है फिर अपने अधिष्ठान,आत्मा,ब्रह्म में लीन हो जाता है।अगर यह कठिन लगता हो तो जो परिछिन्नता बतायी थी अपने को अलग अलग मानते हैं ,उस एक -एक इन्द्रिय को भगवान के एक-एक काम में लगा दो कि देखने वाले मेरे प्रभु हैं और वो जो देख रहे हैं वो अपने सबको ही देख रहे हैं तो फिर ज्ञान में पूर्णता आ जाती है,देखने वाले दो नहीं है देखने वाले एक परमात्मा ही हैं और विचार करने वाला सविषय चेतन है उसी ने दो खड़े कर दिये हैं।हमारी दृष्टि देखते,सुनते,बोलते, सब समय ये होनी चाहिये कि मैं चेतन हूँ ,ये बोलने, सुनने वाले का अभिमान करने वाला मैं नहीं हूँ ,हमारी निगाह वहाँ रहनी चाहिये।सविषय चेतन को निर्विषय चेतन में लीन करना ये थोड़ा कठिन प्रतीत होता है तो सविषय चेतन को सब ,पूरा का पूरा भगवान में लगा दें , भक्ति में ऐसे करते है कि सब इन्द्रियों को भगवान की सेवा में लगाते हैं ,मस्तक भगवान और सन्त-महात्मा की ओर विनम्रता से झुकाकर प्रणाम करें,आँखों से भगवान का दर्शन करें ,उनको निहारें,कान से भगवान की कथा सुनें,नासिका से भगवान को अर्पित पुष्प,धूप ,इत्र की सुगंध लें,जीभ से भगवान को अर्पित प्रसाद पायें,भगवान का गुणानुवाद करें,हाथों से सेवा करें,पैरों से धाम,तीर्थ जायें,नाम जपें और पूजा करें ऐसा करने से सविषय चेतन खत्म कर देता है और मूल परमात्मा में प्रवेश हो जाता है ये भक्ति हो जाती है और जीवन में पूर्णता आ जाती है।आप सविषय चेतन कभी हैं ही नहीं आप सबको सत्ता देने वाले हो।p

श्री राधे

प्रबोधसुधा वर्षण

समता में कैसे स्थित हों?

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ।।

यह लेख अपने गुरुदेव के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ और धन्यवाद करती हूँ अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी का जिनके सहयोग से यह लेख पूर्ण हुआ है |

हमारे सामने ऐसी परिस्थितियाँ आ जाती हैं जिसके कारण हम अपनी स्थिति से हट जाते हैं और दुखी हो जाते हैं, कोई बिछड़ गया ,किसी ने कुछ गलत कह दिया तो हमको दुख हो गया ,आजकल देख लीजिए नकारत्मकता ही है हर जगह,,दुखी ही दुखी।परिस्थिति हमारे हाथ की बात नहीं है जो होना है वो होकर रहेगा ही जन्म है तो मृत्यु है, मृत्यु है तो जन्म है।मिलन है तो जुदाई है,जुदाई है तो मिलन है,सुख है तो दुख है ,दुख है तो सुख है ऐसा चलता ही रहता है ये कोई नयी बात नहीं है ,प्रकृति अपना कार्य कर रही है। हम सिर्फ कठपुतली हैं रामचरित मानस में आता है- उमा दारु जोषित की नाईं। सबहि नचावत रामु गोसाईं॥(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! स्वामी श्री रामजी सबको कठपुतली की तरह नचाते हैं।  देखिये जो भी भगवान करते हैं वो सबसे बढ़कर करते है जो भी परिस्थिति हमारे जीवन में आती हैं वो सब हितकारी होती हैं हमको बाद में उसका पता चलता है तो हमको सोचना चाहिए भगवान हमको इस परिस्थिति से क्या सिखाना चाहते हैं।आपने बचपन में मारियो वीडियो गेम खेला होगा या जानते होगे उसमें आपके हाथ में रिमोट कण्ट्रोल होता है तो मारियो चलता है ,खाई पार करता है और उसमें मारियो मर जाता है तो गेम ओवर हो जाता है और खेलते खेलते आप बोलते हो मैं मर गया हम उस गेम में इतने घुस जाते हैं अपने को ही मरा हुआ समझ लेते हैं तो मरा कौन है? कोई नहीं,,ऐसे ही ये खेल चल रहा है आप अपने को शरीर से अलग करके सोचो तो आत्मा तो कभी नहीं मरता। आपने virtual reality शब्द सुना होगा तो आजकल वैसे गेम होते हैं चश्मा लगा कर बाइक पर बिठा देते हैं और आपको लगता है आप बाईक चला रहे हो जबकि आप नहीं चला रहे होते हो,यह सब भ्रम ही तो है, अब आप कोई फिल्म देखो तो उसमें अलग-अलग भूमिका निभाते लोग जैसे कोई फिल्म में कोई भी रोल कर रहा पर इसका मतलब ये नहीं कि वो वही हो गया ?फिल्म खत्म तो वह रोल भी खत्म। तो हम मनुष्य ने अपना अस्तित्व खड़ा कर लिया है , वो रोल करते-करते इतना उसमें घुस गये हैं असली अपने आप को भूल गये हैं।आप अपनी भूमिका अच्छे से निभाओ पर अपने को बिना भूले अपनी स्थिति से बिना डगमगाये।आप बेटे हो ,बेटी हो,भाई हो,पति हो ,पत्नी हो तो वो अच्छे से भूमिका निभाओ सेवा करो पर अपने को बिना भूले और सब अपना-अपना रोल कर रहे हैं ।सब अपने रोल बखूबी निभाओ बिना विचलित हुए बिना आसक्त हुए।सब भगवान ही बने हुए हैं इस बात को ध्यान में रखकर।अब जब राम जी सीता जी की खोज में निकले है और रो रहे हैं सती जी उनको देखकर बोलती हैं ये कैसा ब्रह्म है जो रो रहा है जबकि राम जी ने असली सीता जी को अग्नि देव के संरक्षण में रखा था और रावण माया सीता जी को ले गया था तो यह लीला ही तो थी भगवान अपना रोल प्ले कर रहे थे। ऐसे ही एक उदाहरण और आता है इरावन अर्जुन और उडुपी के पुत्र थे , तो महाभारत के युद्ध में अगले दिन इरावन को मरना निश्चित था ये बात इरावन तो पता थी कि वो अगले दिन नहीं रहेगा पर वो बिना विवाह किये, वह मरना नहीं चाहता था।अब इतनी शीघ्र वधू की व्यवस्था कहाँ से हो और कौन एक रात की वधू और फिर विधवा होने को तैयार हो ? भगवान कृष्ण ने इस समस्या का समाधान किया। वे स्वयं इरावन की एक रात की पत्नी बनने को तैयार हो गए। अगले दिन उन्होंने, इरावन की मृत्यु के बाद, विधवा की भांति विलाप भी किया। भगवान ने विधवा का रोल प्ले किया, ये प्रभु की लीला है।

जब कंस ने कृष्ण को मारने के लिये ब्रज में अघासुर को भेजा,बहुत बड़ा अजगर सा बन कर आया था उसने अपना मुख खोल रखा था और जिह्वा बाहर निकाल रखी जो सड़क के समान प्रतीत हो रही थी और उसका मुख द्वार के समान लग रहा था तो कान्हा तो जानते थे ये राक्षस है और ये किस उददेश्य से आया है अब ग्वालबालों में दो दल हो गये एक बोले चलो इस के अंदर देख कर आते है कि इतना बड़ा महल किसका है और दूसरा दल कहता है जो भगवान के निकट थे और उनकी बात समझते थे वो बोलते है कि कई दिनों से उपद्रव हो रहे हैं हो सकता है ये भी कोई राक्षस हो,कंस की चाल हो सकती है तो जो नहीं माने थे वो अघासुर के मुख में घुस गये फिर भगवान ने जाकर अपना शरीर का विस्तार किया और उस राक्षस का वध किया और अपने सखाओं को बचाया तो इसका अर्थ ये हुआ कि जब तक हम संसार से पूर्ण विमुखता नहीं कर लेते जब तक भगवान अच्छे नहीं लगेंगे,संसार से पूर्ण विमुख होना पड़ेगा यानि सबमें भगवान को ही देखना और किसी की दूसरी सत्ता नहीं मानें। हम ऊपर से तो जानते हैं कि संसार झूटा है फिर भी जैसे वो ग्वालबाल फस गये ,जानबूझ कर हम भी अजगर रूपी संसार के मुहँ में हम भी घुस जाते हैं फिर वही जन्म-मृत्यु,जरा -व्याधि।तो जब तक संसार से विमुखता नहीं होती है और भगवान से सम्मुखता नहीं होती जब तक समता नहीं आती है,तो भगवान के सम्मुख हो जाना चाहिये ।सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।।

हम संसार को जानते हैं कि सब रूपों में भगवान हैं फिर भी हम इसको भूल जाते हैं तो समता नहीं होती है और पूर्ण रूप से परमात्मा से प्रेम भी नहीं होता या कह सकते हैं कि संसार से हमको पूर्ण विमुखता नहीं होगी या संसार ही जब तक भगवान का रूप नहीं दिखायी देगा तब तक समता आ नहीं सकती।

एक बार हमने गुरुदेव से पूछा भगवान ने तो दुख बनाया नहीं है तो इस संसार को दुःखालयमशाश्वतम् क्यों कहते हैं? गुरुदेव बताते हमारे कि व्यक्ति को उसके मोह के कारण दुख होता है। सब भगवान बने हुए हैं पर हम उनको नहीं पहचानते और अपने को भी नहीं जानते तो इसको बोलते हैं अन्य में अन्य अध्यास “अनन्योध्यास” । हम अपनी सृष्टि को बना लेते हैं ये मेरे माता, मेरे पिता, मेरे पुत्र आदि और भगवान की बनायी सृष्टि को भूल जाते हैं,जब हम भगवान की बनायी सृष्टि के एक भाग में मैं और मेरापन कर लेते हैं तो यह आसक्ति का मुख्य बिन्दु होता है ।आसक्ति में हम अपने स्वरूप को भूल जाते हैं जिसकी वजह से ही दुख होता है अब समता में कैसे स्थित हों? देखिये गीता जी में आता है “सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ |
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि “||2.38 तुम सुख या दुख, हानि या लाभ, विजय या पराजय का विचार किये बिना युद्ध के लिए युद्ध करो | ऐसा करने पर तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा ।2.38 |ये जीवन क्या युद्ध से कम है?तो समान रहो।

गुरुदेव कहते हमारे “जिसको विशेष ज्ञान प्राप्त होता है वह हर अवस्था में समान रहता है, वह समभाव में स्थित हो जाता है वह सुख-दुख,लाभ-हानि और जय पराजय सबमें एक समान होता है। ” यहाँ विशेष ज्ञान का अर्थ स्वयं को जानने से है तो जिसको विशेष ज्ञान प्राप्त है वह संसार में रहकर भी सब कार्य करते हुए भी उनसे अलग होता है।

अब देखो ऐसा भी होता है कि कोई हमको कुछ कह देता है तो बहुत बुरा लगता है तो ऐसे में बिना अपनी स्थिति कुछ समय को खो देते हैं दुखी हो जाते हैं तो हमारे दादा बताते हैं कि रामचरितमानस में आता है बिनु बिग्यान कि समता आवइ। कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ॥अर्थ:विज्ञान (तत्त्वज्ञान) के बिना क्या समभाव आ सकता है? आकाश के बिना क्या कोई अवकाश (पोल) पा सकता है?और गीता जी में आता है योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।
 अर्थ: हे धनञ्जय ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है। ये जो नकली उपाधि हमने अपनी जो मान ली है तो बुरा उसको लगता है,अहम को लगता है,हमको नहीं लगता है,जो हमारा अहंकार है ना ,ये बुरा-अच्छा उसमें लगता है,हमने नकली इमेज बनायी हुई है कि मैं ऐसा हूँ या वैसा हूँ तो जो हमारी अपनी बनाई हुई नकली इमेज है ,अपने बारे में जो हमारी धारणा है वहाँ पर चोट लगती है तब बुरा लगता है तो उसको बुरा लगा है या नहीं लगा है उसको जानने वाले हम हैं , बुरा अहंकार को लगता है। तो समता के लिये तुलसीदास जी दो बात लिखते हैं एक :-बिन बिनु बिग्यान कि समता आवइ। कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ॥ जब तक बुद्धि में निश्चय नहीं होता कि जो मैंने खुद के बारे में जो धारणा बना रखी है उसके विपरीत जो बोलता तब बुरा लगता है। तो पहले हम अपनी उस नकली धारणा को मिटायें और दूसरा वो कहते हैं :- तुलसी ममता राम सों समता सब संसार।राग न रोष न दोष दुख दास भए भव पार ।। केवल जो आप अपना प्रेम है वो भगवान से रखिये तो संसार में समता स्वाभाविक रूप से हो जाती है क्योंकि सब रूपों में तो भगवान ही तो है।

बिनु बिग्यान कि समता आवइ। बिन विज्ञान के समता आने का अर्थ है बुद्धि में जब निश्चय बैठ जाता है कि सब भगवान ही बने हुए हैं तो किसका बुरा माने किसका भला माने ,तो मेरे अहम में मेरा नकली अस्तित्व बना हुआ है ,वहाँ अच्छा-बुरा लगता है,वास्तविकता ये है कि सब परमात्मा बने हुए हैं तो जब तक हम सबमें भगवान को नहीं देखेंगे तब तक समता नहीं आ सकती है।तो समता कब आयेगी ?जब भगवान को सब में देखेंगे अपनी मान्यता को हटा देंगे।तो कोई कुछ कहें तो सावधान रहें और ये सोचना चाहिए मुझे कोई कुछ नहीं कह सकता है, जो भी कहा जा रहा है मेरे अहम को ही कहा जा रहा है। अब आपकी नजर में आपकी पत्नी अलग है,पुत्र अलग है,पुत्री अलग है क्या सबके प्रति एक सा भाव रहेगा?नहीं होगा वैसे सब समान रूप से दिख रहे है लेकिन अहंकार ने स्वीकार कर लिया है ये मेरी पत्नी है,मेरा पुत्र है,मेरी पुत्री है तो यह अहम में बैठ कर कहते हैं तो वहाँ समता नहीं हो सकती समता कब होगी जब उससे ऊपर उठेंगे बुद्धि में बैठेंगे और यह निश्चय करेंगे कि सब ये परमात्मा ही तो बने हुए हैं अब ये समता का भाव हो जायेगा।

भगवान से प्रेम करो और संसार को छाया मानो,जब छाया मनोगे तो ना किसी से राग होगा ना किसी से द्वेष होगा ।ये हमारा राग ही परेशान करता है, द्वेष तो राग की पूर्ति ना होने से अपने आप जन्म लेता है तो राग को छोड़ देना द्वेष अपने आप छूट जायेगा,समता अपने आप जायेगी।समता लानी हो तो द्वेष छोड़ना पड़ता है उसी को बैरागी कहते हैं।समता यानि सबको बराबर समान रूप से देखना।सबको भगवान का रूप मानो समता आ जायेगी।

जो आपकी चेतन शक्ति है वो तो बोलता नहीं तो अहम बोलता है अहम का अर्थ ही विसमता है और अपने अहम को मिटाना ही समता है।इसको चित्त का समाधान कहते हैं।चित्त में अहम शक्ति होती है , चित्त में बैठा हुआ है अहम मैं मैं करता है और नीचे उतरता है तो क्रियात्मक होता है ,एक होता है बिना क्रिया का जहाँ वो सतोगुण की प्रधानता से अहंकार में बोलता है मैं, जब रजोगुण में आता है तब मन होता है वहाँ से व्यवहार चलता है यहाँ से समता प्रकट होती है तो अपने अहम को सही जान लें तो आप समता ला सकते हो।चित्त का समाधान ही समता का बिन्दु है तो ये बिना बुद्धि के प्रयोग के नहीं हो सकता।चित्त शान्त हो जाये अहम मिट जाये तो कहाँ बुरा लगेगा,कहाँ अच्छा लगेगा ,कहाँ सुख-दुख होगा। सब बराबर हो जायेंगे।

समता जीवन में आना बहुत अनिवार्य है बिना समता के किसी को शान्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती,शान्ति के लिये,भगवान के दर्शन के लिये,अनुभव के लिये समता अनिवार्य है।अगर हीरे को 3600 डिग्री सेल्सियस अगर हीरे को गर्म करेंगे तो वो हीरा भाप बन जायेगा तो अपने हृदय को,अपने मन को इतना दग्ध करना पड़ता है जैसे 3600 डिग्री सेल्सियस पर हीरा भाप और पानी में रूपांतरित हो जाता है उसका अस्तित्व मिट जाता है ऐसे ही हम उसका दस प्रतिशत भी अपने मन को दग्ध कर दें ,360 डिग्री तक कर दें संसार की तरफ पीठ कर दें और पूरी सम्मुखता भगवान की ओर कर दें तो ये मन जो हमको फसाता है ये दग्ध हो जायेगा भगवान में विलीन हो जायेगा तो समता अपने आप आ जायेगी।

अदिति

मैं और मेरे की पहचान

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ।।

ये लेख हम अपने प्यारे गुरुदेव स्वामी श्री प्रबोधानन्द जी महाराज जी के श्री चरणों में समर्पित करते हैं और धन्यवाद करते है अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी का जिनके सहयोग ये लेख पूर्ण हुआ है।

स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज कहते हैं एक बात जान लो मैं परमात्मा का हूँ और परमात्मा मेरा अपना है।भगवान मेरे हैं इसमें तो कोई संदेह ही नहीं है पर ऐसा क्यों?

इसका तात्पर्य समझने से पहले हम मैं को समझते हैं देखो दो मैं होते हैं एक असली एक नकली। एक वो जो आप असली हो जो सदा एक सा रहता है और जो प्रकृति से परे है और एक वो जो प्रकृति से शरीर,चित्त,मन,बुद्धि,अहंकार आदि से जुड़कर अपने को मैं मानता है ये नकली मैं है।तो नकली मैं ही जीव है।

गुरुदेव हमसे पूछते:
गुरुदेव-अदिति जब तू 5 साल की थी तब कैसी थी।
अदिति-गुरुदेव बहुत छोटी थी, बाल्यावस्था थी।
गुरुदेव-जब 15 साल की कैसी थी?
अदिति-किशोर अवस्था में थी गुरुदेव ।
गुरुदेव-और अब तू 23 साल की है तो कैसी है?
अदिति-युवा हूँ गुरुदेव।
गुरुदेव-जब 50 की होगी तब?
अदिति-अधेड़ अवस्था होगी।
गुरुदेव-इसके और 20-30 साल बाद?
अदिति- बूढ़ी हो जाऊंगी गुरुदेव।
गुरुदेव-तू बदली क्या?नहीं तेरा शरीर बदला अवस्था बदली,तू नहीं बदली।शरीर कैसा भी हो जाये ,अवस्था कैसी भी हो जाये तो असली आप हो वो कभी नहीं बदलता,शरीर ना हो तो भी।यह शरीर प्रकृति का है ।अब तुम शीशे के सामने खड़े हो जाओ सिर से लेकर पांव का सब दिखेगा पर देखने वाला कौन है।गुरु वशिष्ठ राम जी को बार-बार कहते हैं ,हे राम जी तुम निज का अर्थ शरीर से नहीं आत्मा से करो। जो सब शरीरों मे सब अवस्था में एक समान रहता है जो सदैव स्थिर रहता है।यानि स्वयं।
निज का अर्थ रामचरित मानस में आता है
निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा। परस कि होइ बिहीन समीरा॥
जो उससे जुड़ा नहीं,उसको सच्चा सुख कभी नहीं होता।सच्चा सुख परमात्मा का ही रूप है,संसार के सुख इन्द्रियजनित हैं,इन्द्रियों से होते हैं लेकिन इन्द्रियों से सुख लेता कौन है?उसमें विवेक करो।जिह्वा पर कोई चीज़ रखी तो ये स्वाद का ज्ञान शरीर को होता है या शरीर से परे वाले को होता है?  
अदिति : खुद को होता है ।
गुरुदेव : तो वो जो खुद है वो ही खुदा है, वो जो स्वयं है वही आत्मा है ,वही असली आप हो।

देखो जो असली मैं है वो शुद्ध है उसमें माया का लेश भी नहीं है,वो प्रकाशक है और प्रकाशने का धर्म भी उसमें नहीं है,उसी के होने से सब है ,वो ज्ञान स्वरूप है।एक तरफ प्रकृति है , अब जो नकली मैं है तो शुद्ध चेतन परमात्मा जब वो समष्टि में मेरापन करता है जब वो प्रकृति से जुड़ता है तो वो अपना एक नकली वजूद या कह सकते हैं बीच में एक लकीर खड़ा कर लेता है ,तीनों गुणों से जुड़ जाता है ,वही नकली को हटाने का ,ये बीच की लकीर हटाने का प्रपंच है।ये आरोपित की हुई है,यही नकली मैं ही जन्म-मृत्यु में फसाता है । जबकि असली और नकली दोनों अभिन्न हैं।असली के होने से ही नकली वाला मैं है ।

तो दादा बताते है हमको : भगवान मेरे है ,पर कैसे मेरे हैं इसको जानते है:पहले “मैं”अपने अंत:करण में दिखायी देगा कि मैं कहाँ से आ गया तो असली मैं को भूल के ही मेरा हुआ ना,देखो दो हो गये नकली और असली ।नकली वाला जीव है और असली वाला परमात्मा ।तो अंत:करण में जब दिखायी दिया तो भगवान किसके है तो सिद्ध हुआ भगवान मेरे अपने हैं ,क्यों हैं ? क्योंकि उनके अपनेपन से ही मेरा अपनापन है वो उनके ही कारण से है ,मेरा अपना कोई स्वतंत्र अपनापन नहीं होता है।परमात्मा मेरे हैं और परमात्मा मेरा अपना है या मैं भगवान का हूँ तो जो मेरा अपनापन है वो परमात्मा के बिना हो नहीं सकता इसलिये वो परमात्मा/ भगवान मेरा अपना है।मैं परमात्मा का हूँ का मतलब है ये मेरा जो अपना आपा है, आपा यानि स्वयं ,यानि अंत:करण से रहित अंश है जो ज्ञानस्वरूप है वो आप हो। तो वो किसका हुआ? अपना आपा तो परमात्मा ही है।

समझाने के लिये एक दृष्टांत आता है वैसे तो पूर्णता सिर्फ परमात्मा में ही हो सकती है, पर दृष्टांत पूर्णता का बोध करा सकती है। जैसे सोने के आभूषण है उनका प्रयोग करते है चाहे माथे पर टीका हो,चाहे नाक में नथिनी हो,कान में कुण्डल हो,गले में हार हो,हाथों में चूड़ियाँ हों,कमर में कमरबन्द हो या पांव में पायल हो आदि। तो आभूषण शरीर के किसी भी भाग में पहना जाये ,व्यवहार में तो आभूषण का प्रयोग कुछ भी हो सकता है,अच्छे स्थान माथे पर भी रह सकता है या निम्न स्थान पांव में भी रह सकता है ,जिस धातु से बना है उसका महत्व अलग है और व्यवहार अलग अलग होता है पर महत्व बुद्धि धातु की होती है ,वो पांव और हाथ का भेद नहीं करते हैं मूल्य होता है धातु का तो ऐसे ही व्यवहार में ये मन,बुद्धि,इन्द्रिय,शरीर आदि वाला कैसा भी हो लेकिन ज्ञान बुद्धि से,भक्ति बुद्धि से,महत्व बुद्धि से,ये किसी से भी अपना सम्बन्ध जोड़े लेकिन इसका वास्तविक सम्बन्ध परमात्मा से ही है।जैसे आभूषणों को व्यवहार में प्रयोग करते समय हम जैसे भी प्रयोग करें लेकिन धातु में महत्व बुद्धि रहती है,इस शरीर आदि से मैं बुद्धि से जो काम हो रहा है इसकी महत्व बुद्धि ना रखकर अपनी मूल धातु परमात्मा से ही महत्व बुद्धि रखना ही भगवान को मेरा जानना है और इसलिये मैं परमात्मा का हूँ और परमात्मा मेरा है।ये इसका परमार्थिक अर्थ है।

प्रबोधसुधा वर्षण