भक्त अपराध

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ।।

यह लेख अपने गुरुदेव स्वामी श्री प्रबोधानन्द जी महाराज के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ और धन्यवाद करती हूँ अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी का जिन्होंने हमारा इस लेख में सहयोग किया है।

साधक को किसी से भी नहीं डरना चाहिए पर एक भक्त अपराध से उसको हमेशा जरूर डरना चाहिए और सतर्क रहना चाहिए चैतन्य चरितामृत में आता है “वैष्णव-अपराध एक नशे में धुत हाथी की तरह है। यह भक्ति रूपी लता को जड़ से उखाड़ देता है और उसके पत्तों को सुखा डालता है। “कभी-कभी लोगों को भजन में आनंद नहीं होता है कोई कमी सी लगती है उसका कारण भक्त अपराध भी हो सकता है।

भक्त अपराध क्या होता है?जब कोई किसी भक्त को दुःख देता है, अपमान करता है, निंदा करता है, दुर्व्यवहार करता है तो यह उस भक्त के प्रति अपराध हो जाता है।अपराध तीन प्रकार से होता है मन से, शब्दों से और शरीर से।

हरि भक्ति विलास का कथन हैं कि किसी वैष्णव के प्रति द्वेष रखने, क्रोध करने, उसका अनादर करने, उसकी निन्दा करने, उस पर प्रहार करने, या उसे देखकर हर्ष न प्रकाश करने से पतन होता है- हन्ति निन्दति वै द्वेष्टि वैष्णवान्नाभिनन्दति। क्रुद्यते याति नो हर्ष दर्शन पतनादि षट्॥

वैष्णव-अपराध से भगवान को दु:ख होता है और अपराध करने वाला भक्त हो तो भी यमपुर जाता है, ऐसा सूरदास जी ने कहा है-भक्त अपराधे हरि दु:ख पइ हैं।सूरदास भगवन्त बदत यों मोहि भजत ते यमपुर जइहैं॥वैष्णव-अपराध से रक्षा करने की सामर्थ्य स्वयं भगवान में भी नहीं है. जिसके प्रति वैष्णव-अपराध हो वही जब तक क्षमा न करे तब तक भीषण परिणाम से रक्षा पाने का कोई उपाय नहीं। एक प्रसंग श्रीमद्भागवत में आता है और हमारे गुरुदेव भी हमको सुनाया करते थे:

राजा अम्बरीष भगवान के विशुद्ध प्रेमी भक्त थे एक बार उन्होंने एक वर्ष तक द्वादशी प्रधान एकादशी-व्रत करने का नियम ग्रहण किया। व्रत की समाप्ति होने पर राजा ने व्रत का पारण करने की तैयारी की। उसी समय स्वयं दुर्वासाजी भी उनके यहाँ अतिथि के रूप में पधारे।राजा अम्बरीष उन्हें देखते ही उठकर खड़े हो गये, आसन देकर बैठाया और विविध सामग्रियों से उनके चरणों में प्रणाम करके भोजन के लिए प्रार्थना की। दुर्वासाजी ने राजा अम्बरीष की प्रार्थना स्वीकार कर ली और इसके बाद आवश्यक कर्मों से निवृत होने के लिए वे नदीतट पर चले गये। वे ब्रह्म का ध्यान करते हुए यमुना के पवित्र जल में स्नान करने लगे। इधर द्वादशी केवल घड़ी भर शेष रह गयी थी। धर्मज्ञ अम्बरीष ने धर्म-संकट में पड़कर ब्राह्मणों के साथ परामर्श किया। उन्होंने कहा- ‘ब्राह्मण देवताओं! ब्राह्मण को बिना भोजन कराये स्वयं खा लेना और द्वादशी रहते पारण न करना, दोनों ही दोष हैं। इसलिए इस समय जैसा करने से मेरी भलाई हो और मुझे पाप न लगे, ऐसा काम करना चाहिये। तब ब्राह्मणों के साथ विचार करके उन्होंने कहा- ‘ब्राह्मणों! श्रुतियों में ऐसा कहा गया है कि जल पी लेना भोजन करना भी है, नहीं भी करना है। इसलिए इस समय केवल जल से पारण किये लेता हूँ।‘ ऐसा निश्चय करके मन-ही-मन भगवान का चिन्तन करते हुए राजर्षि अम्बरीष ने जल पी लिया और फिर दुर्वासाजी के आने की बाट देखने लगे।

दुर्वासाजी आवश्यक कर्मों से निवृत होकर यमुनातट से लौट आये। जब राजा ने आगे बढ़कर उनका अभिनन्दन किया तब उन्होंने अनुमान से ही समझ लिया कि राजा ने पारण कर लिया है। उस समय दुर्वासाजी बहुत भूखे थे। वे क्रोध से थर-थर काँपने लगे। उन्होंने हाथ जोड़कर खड़े अम्बरीष से डाँटकर कहा – ‘मुझे खिलाये बिना ही कैसे खा लिया है। अच्छा देख, ‘तुझे अभी इसका फल चखाता हूँ। यों कहते-कहते वे क्रोध से जल उठे। उन्होंने अपनी एक जटा उखाड़ी और उससे अम्बरीष को मार डालने के लिए एक कृत्या (राक्षसी) उत्पन्न की। वह आग के समान जलती हुई, हाथ में तलवार लेकर राजा अम्बरीष पर टूट पड़ी।
परमपुरुष परमात्मा ने अपने सेवक की रक्षा के लिये पहले से ही सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर रखा था। जैसे आग क्रोध से गुर्राते हुए साँप को भस्म कर देती है, वैसे ही चक्र ने दुर्वासा जी की कृत्या को जलाकर ढ़ेर कर दिया। जब दुर्वासा जी ने देखा कि मेरी बनायी हुई कृत्या तो जल रही है और चक्र मेरी ओर आ रहा है, तब वे भयभीत हो अपने प्राण बचाने के लिये जी छोड़कर एकाएक भाग निकले।तब दुर्वासा जी दिशा, आकाश पृथ्वी, अतल-वितल आदि नीचे के लोक, समुद्र, लोकपाल और उनके द्वारा सुरक्षित लोक एवं स्वर्गतक में गये, परन्तु जहाँ-जहाँ वे गये, वहीं-वहीं उन्होंने असह्य तेज-वाले सुदर्शन चक्र को अपने पीछे लगा देखा। जब उन्हें कहीं भी कोई रक्षक न मिला तब तो वे और डर गये। अपने प्राण बचाने के लिये वे देवशिरोमणि ब्रह्माजी के पास गये और बोले ‘ब्रह्माजी! आप स्वयम्भू हैं। भगवान् के इस तेजोमय चक्र से मेरी रक्षा कीजिये’। ब्रह्माजी ने कहा- ‘दुर्वासा जी! मैं, शंकरजी, दक्ष-भृगु आदि प्रजापति, भूतेश्वर आदि सब जिनके बनाये नियमों में बंधे हैं तथा जिनकी आज्ञा शिरोधार्य करके हमलोग संसार का हित करते हैं उनके भक्त के द्रोही को बचाने में हम समर्थ नहीं हैं।‘जब ब्रह्माजी ने इस प्रकार दुर्वासा को निराश कर दिया, तब भगवान के चक्र से संतप्त होकर वे कैलाशवासी भगवान् शंकर की शरण में गये। शंकर जी ने कहा- ‘दुर्वासाजी! जिनसे पैदा हुए अनेकों ब्रह्माण्डों में हमारे जैसे हजारों चक्कर काटते हैं यह चक्र उन्हीं विश्वेश्वर का शस्त्र है। यह हमलोगों के लिए असह है। तुम उन्हीं की शरण में जाओ। वे भगवान ही तुम्हारा मंगल करेंगे।‘ निराश होकर दुर्वासाजी श्रीहरि भगवान के परमधाम वैकुण्ठ की तरफ भागेे। दुर्वासाजी भगवान के चक्र की आग से जल रहे थे। वे भगवान के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने कहा-‘हे अच्युत! हे अनन्त! आप सन्तों के एकमात्र इच्छित हैं। प्रभो! सम्पूर्ण जगत के जीवनदाता! मैं अपराधी हूँ। आप मेरी रक्षा कीजिये। आपका परम प्रभाव न जानने के कारण ही मैंने आपके प्यारे भक्त का अपराध किया है। प्रभो! आप मुझे बचाईये।‘ श्री भगवान ने कहा-‘दुर्वासाजी! मैं सर्वथा भक्तों के अधीन हूँ। मुझमें तनिक भी स्वतंन्त्रता नहीं है। जो भक्त स्त्री, पुत्र, गृह, गुरुजन, प्राण धन इहलोक और परलोक-सबको छोड़कर केवल मेरी शरण में आ गये हैं, उन्हें छोड़ने का संकल्प भी मैं कैसे कर सकता हूँ? इसमें सन्देह नहीं कि ब्रांह्मणों के लिये तपस्या और विद्या परम कल्याण के साधन हैं। परन्तु यदि ब्राह्मण उदृण्ड और अन्यायी हो जाय तो वे ही दोनों उलटा फल देने लगते हैं। दुर्वासाजी! सुनिए, मैं आपको एक उपाय बताता हूँ। जिसका अनिष्ट करने से आपको इस विपत्ति में आना पड़ा है, आप उसी के पास जाईये। उनसे क्षमा माँगिये तब आपको शान्ति मिलेगी।‘सुदर्शन चक्र की ज्वाला से जलते हुए दुर्वासा लौटकर राजा अम्बरीष के पास आये और उन्होंने अत्यन्त दुःखी होकर राजा के पैर पकड़ लिये। दुर्वासाजी की यह चेष्टा देखकर और उनके चरण पकड़ने से लज्जित होकर राजा अम्बरीष भगवान् के चक्र की स्तुति करने लगे।जब राजा अम्बरीष ने दुर्वासा जी को सब ओर से जलाने वाले भगवान् के सुदर्शन चक्र की इस प्रकार स्तुति की, तब उनकी प्रार्थना से चक्र शान्त हो गया। जब दुर्वासा चक्र की आग से मुक्त हो गये और उनका चित्त स्वस्थ हो गया, तब वे राजा अम्बरीष को अनेकानेक उत्तम आशीर्वाद देते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे। दुर्वासा जी ने कहा- धन्य है! आज मैंने भगवान् के प्रेमी भक्तों का महत्त्व देखा। राजन्! मैंने आपका अपराध किया, फिर भी आप मेरे लिये मंगल-कामना ही कर रहे हैं। महाराज अम्बरीष! आपका हृदय करुणा भाव से परिपूर्ण है। आपने मेरे ऊपर महान अनुग्रह किया। अहो, आपने मेरे अपराध भुलाकर मेरी रक्षा की है!

जन्म प्रभृति यत्किंचित सुक्रतम् समुपार्जितम्।
नाशमायाति तत्सर्वम् पीड़येदा यदि वैष्णवान्।। (स्कंद पुराण)अर्थात- जो मनुष्य वैष्णवों को कष्ट देते हैं उनके जन्मार्जित सारे पुण्य नष्ट हो जाते हैं।

पूजितै भगवान् विष्णुर्जन्मांतर शनैरपि।
प्रसीदति न विश्वात्मा वैष्णवे चावमानिते।। (श्रीमद्भागवत)अर्थात जो मानव वैष्णव का अपमान करता है, उसके प्रति भगवान कभी प्रसन्न नहीं होते हैं। अब यह समझना चाहिए कि वैष्णव अपराध कितना खतरनाक है। यदि वैष्णव अपराध बन जाता है, तो जीव चाहे जितना भी भजन क्यों न कर ले, कितना भी साधन क्यों न कर ले, किसी भी प्रकार से भक्ति पथ पर थोड़ा भी अग्रसर नहीं हो सकता।

जो मनुष्य वैष्णवों को कष्ट देते हैं उनके जन्मार्जित सारे पुण्य नष्ट हो जाते है। केवल मुंह से वैष्णव निंदा करने से ही वैष्णव अपराध होगा ऐसा नहीं है। यदि किसी ने वैष्णवों की निंदा की और हम केवल “हां” में या “ठीक है” इत्यादि शब्दों से समर्थन करते हैं। तो उस निंदा का फल हमें भी संपूर्ण रूप से भोगना पड़ेगा।

निंदा कुर्वन्ति ये मूढ़ा वैष्णवानाम महात्मानाम्।
पतन्ति पितृभिः सार्दाम् महासैरवे संस्थिते।। ( स्कंद पुराण)अर्थात – जो मूढ बुद्धि व्यक्ति वैष्णव की निंदा करता है वह पितृ कुल सहित “रौरव नरक” में पतित होता है। [रौरव ] हिन्दू मान्यताओं तथा धार्मिक ग्रंथों के अनुसार भूमि के नीचे जो पाँच भयानक नरक हैं, उनमें से एक है।

कभी-कभी ऐसा भी होता है आप किसी भक्त से बात कर रहे हो और वो आपसे दूसरे भक्त की निंदा करने लगे तो समझ नहीं आता क्या करें ऐसे में,क्योंकि कभी ऐसी परिस्थिति भी हो जाती है जिसकी निंदा हो रही हो उसकी सुन नहीं सकते और जो निंदा कर रहा हो उसको कुछ कह नहीं सकते तो बहाना लगाकर वहाँ से निकल जाना चाहिये क्योंकि जाने -अनजाने में अपराध हो सकता है और कोई गलती ना होने पर भी आपको अपराध लग सकता है इसलिए वहाँ से अपने को हटा लेना चाहिये और प्रार्थना कर लेनी चाहिये,सभी साधु ,संतजन, गुरुजन ,वैष्णवजन,भक्तों महात्मा को मेरा प्रणाम, आप तो कृपामूर्ति हैं ,क्षमामूर्ति हैं ,अगर जाने-अनजाने हमसे कभी कोई अपराध हुआ हो तो हमको क्षमा करें।

कभी-कभी अनजाने में भी भक्त अपराध हो जाता है।एक प्रसंग आता है:श्री रूप गोस्वामी जी पर राधाकृष्ण की कृपा की वृष्टि जब निरन्तर होने लगी, उन्हें प्राय: हर समय उनकी मधुर लीलाओं की स्फूर्ति होती रहती और वो लीला दर्शन करते रहते।

एक बार कृष्णदास नाम के एक विशिष्ट वैष्णव-भक्त, जो पैर से लंगड़े थे, उनके पास आये कुछ सत्संग के लिए। उस समय वे राधा कृष्ण की एक दिव्य लीला के दर्शन कर रहे थे। राधा एक वृक्ष की डाल से पुष्प तोड़ने की चेष्टा कर रही थीं।डाल कुछ ऊँची थी, वे उचक-उचक कर उसे पकड़ना चाह रही थीं, पर वह हाथ में नहीं आ रही थी।श्यामसुन्दर दूर से देख रहे थे। वे आये चुपके से और राधारानी के पीछे से डाल को पकड़कर धीरे-धीरे इतना नीचा कर दिया कि वह उनकी पकड़ में आ जाय। उन्होंने जैसे ही डाल पकड़ी श्यामसुन्दर ने उसे छोड़ दिया, राधारानी वृक्ष से लटक कर रह गयीं,यह देख रूप गोस्वामी को हंसी आ गयी। कृष्णदास समझे कि वे उनका लंगड़ापन देखकर हंस दिये। क्रुद्ध हो वे तत्काल वहाँ से गये ।रूप गोस्वामी को इसका कुछ भी पता नहीं।अकस्मात उनकी लीला-स्फूर्ति बन्द हो गयी, वे बहुत चेष्टा करते तो भी दर्शन नहीं होते। लीला-दर्शन बिना उनके प्राण छट-पट करने लगे, पर इसका कारण वे न समझ सके, सनातन गोस्वामी के पास जाकर उन्होंने अपनी व्यथा का वर्णन किया और इसका कारण जानना चाहा।
उन्होंने कहा- ‘तुम से जाने या अनजाने कोई वैष्णव-अपराध हुआ हैं, जिसके कारण लीला-स्फूर्ति बन्द हो गयी हैं. जिनके प्रति अपराध हुआ है, उनसे क्षमा मांगने से ही इसका निराकरण हो सकता है।’ रूप गोस्वामी ने पूछा- ‘जान-बूझकर तो मैंने कोई अपराध किया नहीं. यदि अनजाने किसी प्रति कोई अपराध हो गया हैं, तो उसका अनुसन्धान कैसे हो?’

सनातन गोस्वामी ने परामर्श दिया- ‘तुम वैष्णव-सेवा का आयोजन कर स्थानीय सब वैष्णवों को निमन्त्रण दो।यदि कोई वैष्णव निमन्त्रण स्वीकार न कर सका, तो जानना कि उसी के प्रति अपराध हुआ है’। रूप गोस्वामी ने ऐसा ही किया, कृष्णदास बाबा ने निमन्त्रण स्वीकार नहीं किया. जो व्यक्ति निमन्त्रण देने भेजा गया था, उससे उन्होंने रूप गोस्वामी के प्रति क्रोध व्यक्त करते हुए उस दिन की घटना का वर्णन किया,रूप गोस्वामी ने जाकर उनसे क्षमा माँगी और उस दिन की अपनी हंसी का कारण बताया तब बाबा संतुष्ट हुए और रूप गोस्वामी की लीला-स्फूर्ति फिर से होने लगी।

कभी किसी साधु,भक्त,संत,गुरुजनों का अपराध नहीं करना चाहिए रावण ने भी विभीषण जी को अपमानित कर राज्य से निकाल दिया था और अभागा हो गया था ।रामचरितमानस में आता है : अस कहि चला बिभीषनु जबहीं ।
आयूहीन भए सब तबहीं ॥
साधु अवग्या तुरत भवानी ।
कर कल्यान अखिल कै हानी ॥1॥ रावन जबहिं बिभीषन त्यागा ।
भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा ॥
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं ।
करत मनोरथ बहु मन माहीं ॥2॥(सुन्दरकांड 42)

ऐसा कहकर विभीषणजी ज्यों ही चले, त्यों ही सब राक्षस आयुहीन हो गए। (उनकी मृत्यु निश्चित हो गई)। (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! साधु का अपमान तुरंत ही संपूर्ण कल्याण की हानि (नाश) कर देता है॥1॥रावण ने जिस क्षण विभीषण को त्यागा, उसी क्षण वह अभागा वैभव (ऐश्वर्य) से हीन हो गया। विभीषणजी हर्षित होकर मन में अनेकों मनोरथ करते हुए श्री रघुनाथजी के पास चले॥2॥

साधु-संतों, भक्तों ,गुरुजनों के बीच में रहकर उनमें कमियाँ नहीं देखनी चाहिए , उनकी बात माननी चाहिए, कमियाँ देखने से अपराध लगता है और भजन में वो रस नहीं आता है ।

श्री राधे

KRSNADITI