ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।
वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।
हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ।।
यह लेख अपने गुरुदेव के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ। हमारे गुरुदेव की कही बात इस लेख में लिखी गयी है और धन्यवाद करती हूँ अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी का जिन्होंने मुझको यह गूंढ़ बात बतायी है जिसको इस लेख में लिखा गया है,जिससे मेरे हृदय में सन्त-महात्माओं के प्रति और भी श्रद्धा बढ़ गयी है|
मेरे मन में अक्सर ये बात आती है कि सन्त किसी को श्राप दे देते हैं तो उनका भी उद्धार हो जाता है आप गर्ग संहिता या किसी अन्य ग्रंथ में पढ़ो तो ऐसे बहुत उदाहरण मिल जाएंगे ,पर सोचिए जब वो किसी पर कृपा करते होंगे ,किसी से स्नेह रखते होंगे , उनका किसी को सत्संग प्राप्त होता होगा या जो संतों को प्यारा हो तो उसका क्या होता होगा ?
देखिये हम डॉक्टर के पास जब जाते हैं तो कैमिस्ट को कैसे ज्ञान हो जाता है कि ये दवाई इस बीमारी में दी जायेगी?एक उदाहरण आता है एक वैद्य थे वो नब्ज देखकर लोगों का जड़ी बूटियों से इलाज करते थे उनका एक नौकर था वो ही दवाई बनाता था तो वैद्य जी दवाई के घटक यानि जड़ी बूटियों का नाम लिख देते और वो नौकर दुकान से जाकर वो ले आता पर वो साथ-साथ उस दुकानदार को भी बोलता जो नाम लिखा है उसकी पहचान भी करा दो तो जैसे लिखा काली मिर्च तो दुकानदार ने उस नौकर को पहचान करा दी ये काली मिर्च है और अन्य जड़ी-बूटियों की भी पहचान कर दी ,अब वो वापस आकर दवाई कूटता फिर मरीज को देते हुए पूछता आप को मर्ज (बीमारी) क्या है ,तो इस तरह उसको पता चल गया कि कौन सी बीमारी में कौन सी दवाई देनी है धीरे -धीरे वो भी वैद्य हो गया और वो भी लोगों को दवाई देने लगा और लोग भी ठीक होने लगे तो किसी ने उससे पूछा कि आपको यह सब योग्यता कहाँ से आयी ?वो बोला मैं बिलकुल पढ़ा-लिखा नहीं हूँ ,मैं कुछ नहीं जानता था दवाई के नाम सीखे वैद्य जी से ,दवाई के घटक सीखे दुकानदार से और बीमारी की पहचान मरीज से हुई, कि आप को कौन सी बीमारी है? तो क्या हुआ जो-जो व्यक्ति जिस-जिस चीज का जानकार है उसके संपर्क में रहिए तो आपको वह चीज बिना अभ्यास के मिल जायेगी ,केवल उनसे नकल करते-करते सीख जायेंगे|
सन्त के पास क्या होता है?उनकी औषधि के घटक क्या हैं?ये जो ज्ञान,वैराग्य और भक्ति हैं ये उनके घटक हैं वे उनकी सही पहचान करा देते हैं|उनके मरीज हम ,आप और संसार में फसे बद्ध जीव हैं अब इसका क्या प्रमाण मिले तो देखिये हनुमान जी जब सीता जी की खोज करने जाते हैं तो उनकी भेंट लंका में विभीषण जी से होती है तो रामचरित मानस में आता है अब मोहि भा भरोस हनुमंता,बिनु हरि कृपा मिलहि नहि संता इसका अर्थ है – हे हनुमान्! अब मुझे विश्वास हो गया कि श्री रामजी की मुझ पर कृपा है, क्योंकि हरि की कृपा के बिना संत नहीं मिलते हैं |
इसका एक पारमार्थिक अर्थ या कह सकते हैं गूढ़ अर्थ हमारे गुरुदेव बताते जो मैंने अपने दादा से सुना है: अब मोहि भा भरोस हनुमंता ,भा का अर्थ संस्कृत में है ->ज्ञान | अब मोहि भा -अब मुझे ज्ञान हुआ, क्या ज्ञान हुआ ? मैं स्वयं को पहचाना |कैसे पहचाना? किसी सन्त का दर्शन करके ,तो हनुमान जी का दर्शन हुआ है और अब भरोसा हो गया सन्त मिल गए तो भगवान भी जरूर मिलेंगे ,विभीषण जी की नजर में हनुमान जी का मूल्य क्या है?उन्होंने हनुमान जी को ही कहा अब मोहि भा भरोस हनुमंता ये संबोधन कर रहे हैं विभीषण जी, बिनु हरि कृपा मिलहि नहि संता आपका दर्शन बिना राम जी की कृपा के नहीं हो सकता । पहले देखो वो खुद सन्त हैं भगवान का भजन करते हैं लेकिन ज्ञान नहीं है ,अंदर से ज्ञान कब हुआ ?जब हनुमान जी का दर्शन हुआ तो शब्द आया अब मोहि भा भरोस यानि पहले ज्ञान हुआ फिर भरोसा हुआ कि बिना भगवान की कृपा के सन्त नहीं मिलते,सन्त तभी मिलते हैं जब भगवान की कृपा होती है । ऊपर उदाहरण में बताया था जैसे वैद्य नब्ज देखते फिर दवाई देते और नौकर जो था उसको नब्ज देखना भी नहीं आता था और वो दवाई को पहचाना , रोग को पहचाना ,दवाई के घटक को पहचाना । वैद्य ने तो नाम लिखकर दिया नौकर को, तो वो नाम सीख गया तो नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं तो सन्त नाम दे देंते हैं और कहते हैं नाम जपो, माला करो। यदि कोई पढ़ा-लिखा ना हो, ग्रंथ, वेदान्त आदि नहीं पढ़ सकता हो और यदि भक्ति के साधन करने का और तीर्थ जाने का भी सामर्थ्य नहीं है तो नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं तो उसको वैद्य की तरह हाथ में अवयव दे देते हैं,यही नाम, ये ले ये जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधि के रोग की औषधि है ।
अब सन्त लोगों के पास ज्ञान कहाँ से आता है?जो हनुमान जी के पास ज्ञान था वो विभीषण जी ने कैसे पहचाना?तो वो जो ऊपर उदाहरण में नौकर था वो नब्ज देखना नहीं जानता था, वह रोगी से पूछता था कि रोग क्या है ?तो रोग की पहचान हो गयी | विभीषण जी जब जान गए हैं कि हनुमान जी लंका में सीता जी का पता लगाने आए हैं और ये राम जी के दूत हैं ,तो राम जी की सेवा में तो वो ही लग सकता है जो राम जी का प्रेमी होगा और प्रेमी ही भक्त कहलाएगा और भक्त वो होगा जिसकी संसार की इच्छायें शांत हो गयी हैं उसकी भगवान को पाने की ही इच्छा होती है और वो सन्त होता है| तो हनुमान जी सन्त है ये विभीषण जी पहचान गए क्योंकि वो खुद भी एक सन्त हैं और सन्त ,सन्त को पहचान जाते हैं | परिणाम क्या होता है दोनों को ही राम जी के दर्शन होते हैं |
हनुमान जी को योग्यता कहाँ से आयी?उनको राम जी कैसे मिले?अब प्रश्न आएगा ऐसा कौन है जिन्होंने हनुमान जी को बताया कि ये राम जी हैं । तो हमको पीछे इतिहास में जाना पड़ेगा
हनुमान चालीसा में आता है :
जुग सहस्त्र जोजन पर भानु।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।
अर्थ: सरल अर्थ यह है कि हनुमान जी ने एक युग सहस्त्र योजन की दूरी पर स्थित भानु यानी सूर्य को मीठा फल समझकर अपने मुख में रख लिया ।
इसका जो गूढ़ अर्थ है वह ये है कि जोजन का अर्थ दूरी से नहीं लगाना जोजन ->यानि जो मनुष्य (कोई भी जन )पर->के पास भानु->भा यानि ज्ञान ,अनु यानि विशेष तो भानु का अर्थ विशेष ज्ञान ।तो जिस व्यक्ति के पास विशेष ज्ञान होता है।
चार युग होते हैं सतयुग,त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग
सतयुग->1,728,000 वर्ष ,त्रेतायुग-> 1,296,000 वर्ष , द्वापरयुग-> 864,000 वर्ष, कलियुग-> 432,000 वर्ष
जुग सहस्त्र ->तो कहते हैं ऐसे सहस्त्रों युग बीत जाएँ यानि कितने ही युगों के बीतने के उपरान्त कोई एक मनुष्य, गीता जी में भी बोलते हैं भगवान बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।7.19।।अब इस श्लोक को इस चौपाई से जोड़कर देखिए तो क्या बोलते हैं जुग सहस्त्र यानि बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। बहुत जन्मों के बाद या बहुत कल्प बीत जाएँ तब जो जन ->कोई मनुष्य पर भानु ->जिनको पूर्ण ज्ञान हो गया है , बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते कई जन्मों के बाद किसी एक मनुष्य के पास पूर्ण ज्ञान है, लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।उस महापुरुष के शरण जा करके उस ज्ञान को उनके द्वारा सुनना और अपने कानों से सुनकर अपने हृदय में धारण कर लेना चाहिये |
लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।सबसे मधुर फल क्या है ?भगवान से प्रेम ही सबसे मधुर फल है ,आत्म ज्ञान सबसे मधुर फल है,स्वयं की पहचान मधुर फल है उस परमात्मा से प्रेम करिये बस ।
इसका एक और अर्थ है अब देखो हनुमान जी जो हैं वो भोले बाबा (भगवान शिव) के अवतार हैं जुग सहस्त्र जोजन पर भानु। जिन भगवान शिव का सहस्त्रों युग बीत जाने पर जिनका विशेष ज्ञान कभी समाप्त नहीं होता ,सहस्त्र योजन बीत जाएँ तो भी वह ज्ञान समाप्त नहीं होता क्योंकि भगवान शिव खुद ज्ञानस्वरूप हैं , लीला करने के लिए ,राम जी की सेवा करने के लिए हनुमान जी का अवतार लिये हैं अब उनको ज्ञान चाहिये, वानर का शरीर धारण किया है, अपने ज्ञान को वो प्रकट नहीं कर सकते तो अपने को छुपाते हुए, उनकी इच्छा हुई ज्ञान होना चाहिये तो वह सूर्य नारायण के पास गए लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।लील्यो का मतलब ग्रहण किया है,यहाँ हनुमान जी, सूर्य नारायण यानि गुरु की शरण गए हैं और वहाँ से मधुर फल यानि ज्ञान प्राप्त किया है और भगवान श्री राम की सेवा करी है तो जो सूर्य नारायण ने ज्ञान दिया है तो उससे वह राम के निर्मल तत्व को जाने हैं और उनकी सेवा करी है ,गुरुदेव भगवान के पास जाकर उनके दिये हुए ज्ञान को अपने हृदय में रखा है, सूर्य को मुँह में नहीं रखा है,खाये नहीं हैं,निगला नहीं है उनसे ज्ञान प्राप्त किया है, लीला द्वारा उस तत्व को समझा और समझा कि सेव्य केवल राम जी ही हैं,दूसरा कोई नहीं हो सकता । ये भक्ति में इसका अर्थान्तर बोलेंगे। तो राम जी की अनन्य भाव से सेवा करिये इस ज्ञान का अर्थ अभिमान न होकर के राम जी से प्रेम और सेवा होनी चाहिए|
बिना भा यानि ज्ञान के बात बनती नहीं है ,ज्ञान का मतलब ज्ञान का अभिमान नहीं होता है इसका अर्थ है जो आपका सच्चा स्वरूप है ,आत्मा है, आपका परम ज्ञान स्वरूप , परम-नित्य उसको सही-सही समझना अपना अर्थ शरीर आदि से ना करें |
वशिष्ठ जी भगवान राम को बार-बार कहते है : हे राम जी तुम निज का अर्थ आत्मा से कर शरीर से नहीं |जब हमारा अर्थ शरीर से होता है तो हम परमात्मा से अलग हो जाते हैं |तो जब ज्ञान होगा तो मेरा जो शरीर से जो संबंध है, माना हुआ है ,वह छूट जाएगा और परमात्मा से जो नित्य संबंध है वो उजागर हो जाएगा तभी हम भगवान से प्रेम कर सकते हैं |
जैसे किसी का कोई बहुत खास बचपन में खो गया जब वो बड़ा हो गया और आपको मिला तो आपने उससे सामान्य व्यवहार किया फिर आपको किसी ने बताया ये वही है आपका खास जो बचपन में खो गया था, उसका प्रमाण भी आपको दे दे, फिर आपका हृदय परिवर्तन हो जाएगा और अभी तक जो भावना थी वह भी बदल जाएगी |जिससे प्रेम नहीं था उससे प्रेम हो जाएगा ,ऐसे ही हमारा परमात्मा से नित्य संबंध है ,चैतन्य संबंध है ,बहुत ही प्रेम वाला संबंध है |भगवान को काल्पनिक मानते हैं जैसे कोई भगवान होगा लेकिन जब उससे परिचय होता है ,प्रेम होता है तो परिचय का मतलब ज्ञान होता है फिर भरोसा होता है फिर प्रेम। व्यवहार में भी तो ऐसे होता है पहले किसी को जानते हैं फिर भरोसा होता है फिर प्रेम होता है ,ऐसे ही तो व्यवहार नहीं निभाते ना, ये ही नियम भगवान पर लागू होता है। बस संसार के लिए यह आसक्ति कहलाती है और भगवान के लिए प्रेम कहलाता है |
जब हनुमान जी विभीषण जी के सामने आये तो विभीषण जी को भी भा भरोस->ज्ञान हुआ और भरोसा भी हुआ कि ये राम जी के भक्त हैं, बंदर नहीं हैं|तो सन्त मिलेंगे तो ये निश्चित हुआ कि भगवान जरूर मिलेंगे| सो बिनु संत ना काँहू पाई |भक्ति को संत के बिना किसी ने नहीं पाया ।7।119।9। अपनी तरफ से कोई नहीं पा सकता है अब इसका यह प्रमाण है कोई भगवान से बोले मुझे आपके चरणों की अनुपायनी भक्ति चाहिये ,भगवान कहते हैं कि भक्ति का तो मैं खुद भोक्ता हूँ ,मैं खुद भूखा रहता हूँ ,जो संत मेरी भक्ति से अघाये हुए रहते हैं वो ही भक्ति दे सकते हैं तो भगवान संत से मिलवा देते हैं ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।10.10।। ऐसा बुद्धियोग मैं ( उनको ) देता हूँ कि जिस पूर्णज्ञानरूप बुद्धियोगसे वे मुझ आत्मरूप परमेश्वरको आत्मरूपसे समझ लेते हैं। तो भगवान ऐसा संयोग बना देते हैं बुद्धि को सुधारने के लिए संतों से मिलवा देते हैं ,भगवान अपनी तरफ से भक्ति नहीं देते,संयोग देते हैं संतों से मिलवा देते हैं|सन्त मिलेंगे तो निश्चित रूप से भगवान मिलेंगे |
जब सीता माता का अपहरण जब हो जाता है तो राम जी सबसे सीता जी का पता पूछते हैं पेड़ – पौधों से ,आकाश से,लोगों से ,सती और शंकर भगवान भी मिलते हैं लेकिन कोई बताता नहीं और जब हनुमान जी आते हैं वो ही शंकर जी का रूप हैं सन्त बनकर आते हैं, सूर्य नारायण से दीक्षा लेकर ,सन्त होकर सामने आये हैं तो ये निश्चित हो गया सीता जी मिलने वाली हैं जब तक हनुमान जी नहीं मिले थे, सीता जी भी नहीं मिली थी, जब हनुमान जी मिले तो सब रास्ते खुले चले गए। इसका मतलब ये हुआ सीता जी को मानो प्रकृति,तो भगवान की प्रकृति की भी पहचान कब होगी जब किसी सन्त के शरण होंगे |
सीता जी प्रकृति और राम जी चेतन परमात्मा |सीता जी की खोज तब होगी जब हनुमान जी होंगे और हनुमान जी सन्त हैं ये विभीषण पहचान गए तो सीता जी को यानि प्रकृति को भी आप तब पहचानेंगे और भगवान को भी जब पहचान पाएंगे जब सन्त कृपा होगी | अब मोहि भा भरोस हनुमंता
बिनु हरि कृपा मिलहि नहि संता और भगवान जब कृपा करेंगे तो वो अपने को ही देंगे उसके लिए वो संतों से मिलवा देंगे |
सन्त की शरण होने से गारंटी है इस बात की ,निश्चित है बिल्कुल, प्रमाणित सिद्धान्त है भगवान आपसे बिना मिले रह नहीं पायेंगे ,जितने भी भक्ति के साधन हैं वो बिन सन्त कृपा के मिल ही नहीं सकते यदपि यह है भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। पर मिलेगी कैसे ?वो भी तो अधीन है, संतों के पास चाबी है उसको खोलने की तो ट्रिक(trick)है | माया को पहचानो अलग और परमात्मा को पहचानो अलग , यानि सन्त के शरण रहने वाले को माया और परमात्मा की पहचान अलग-अलग हो जाती है और जब अलग-अलग खोज हो जाती है तो परमात्मा से जो नित्य संबंध है, सत्य संबंध है सदा रहने वाला संबंध है वो प्रकट हो जाता है फिर वो भगवान से प्रेम करता है, इसी को ही ज्ञान-युक्त भक्ति कहते हैं |
ये सन्त ही दे सकते हैं कोई और नहीं दे सकता पढ़ने से नहीं आएगा ,सन्त की वाणी पर भरोसा करने से स्पष्ट हो जाएगा ऐसा ही होता है। परमात्मा में तीनों तत्व हैं परमात्मा का शुद्ध तत्व ,प्रकृति तत्व और संसार ,इन तीनों को सन्त अच्छे से पहचानते हैं |वो विद्वान सन्त परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को उनके प्रकट स्वरूप संसार को और उनके अप्रकट स्वरूप प्रकृति को भी जानते हैं । ये माया है कि नहीं है ,अविद्या है कि नहीं है, ये ना दिखायी जा सकती है ना देखी जा सकती है जैसे हाथ में दर्द हो तो वो ना देखा जा सकता है ना दिखाया जा सकता है सिर्फ महसूस किया जा सकता है ,ऐसे ही ये किसी सन्त के द्वारा इसका निरूपण किया जाता है, भौतिक रूप से यह संसार घटकों से मिलकर बना है और यह पंचभौतिक प्रपंच है पर इसके पीछे परमात्मा हैं वो ही सब करते हैं ये सब सन्त –महात्मा जानते हैं।
गुरुदेव कहते जो संतों को प्यारा होता है वो भगवान को कितना प्यारा होता होगा सोचो ,जो संतो को प्यारा लगता है वो भगवान को सबसे प्यारा लगता है और सन्त ही उसका हाथ पकड़कर भगवान के हाथ में दे देते हैं और कह देते हैं ये आपका हो गया इसकी बाँह पकड़ लेना इसके साथ सही निभाना तो फिर भगवान कहते हैं संतों ने इसकी बाँह पकड़ कर हमारे हाथ में पकड़ाई है तो हम भी इसके साथ निभायेंगे।
अदिति