Archive | March 2021

प्यारे गुरुदेव।Pyare Gurudev

स्वामी श्री प्रबोधानन्द जी महाराज

अपने प्यारे गुरुदेव के लिये जितना भी लिखो,जितना भी कहो वो हमेशा बहुत ही कम रहेगा,ज्यादा कुछ तो हमको आता नहीं इसलिये कुछ पंक्तियाँ अपने गुरुदेव के लिये लिख रही हूँ ,जो उन्हीं के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ।

प्यारे गुरुदेव….कैसे बताऊँ आप क्या हो मेरे लिये,
मेरे जीवन का प्रेम तुम,
मेरी जिन्दगी में भरने वाले रंग तुम,
मुझे प्रेम का सही मतलब सिखाने वाले तुम,
मेरे मन को मुझसे भी अच्छे से जानने वाले तुम,
मेरे माता तुम,मेरे पिता तुम,मेरे सबसे अच्छे मित्र तुम,
जो हर मुश्किल में साथ दे वो साथ निभाने वाले तुम,
हर मुश्किल से निकालने वाले भी तुम,
कभी जो लड़खडाऊं तो मुझे थामने वाले तुम,
गिर जाऊँ तो मुझे उठाने वाले तुम,
बादल बनकर धूप से बचाने वाले तुम,
कभी जो रोऊँ तो चुप कराने वाले तुम,
मेरी जिद को भी पूरा करने वाले तुम,
मैं जो रूठ जाऊँ तो मनाने वाले तुम,
मुझको बिट्टौ और लाडली नामों से पुकारने वाले तुम,
जो जिद करुँ तो मुझको हठीली भी कहने वाले भी तुम,
मुझको पूर्ण बनाने वाले तुम,
मुझको सुरक्षित महसूस कराने वाले तुम,
मुझको मान देने वाले भी तुम,
मेरे पथ पर फूल बिछाने वाले तुम,
मेरे बंजर जीवन को फूलों का बगीचा बनाने वाले तुम,
मुझको सही मार्ग पर लगाने वाले तुम,
जीवन में कृष्ण प्रेम लाने वाले तुम,
हरि की कथा सुनाने वाले तुम ,
अपनी अदिति को मोर का पंख कहने वाले तुम,
मेरे जीवन को नया सार देने वाले तुम ,
मुझको आत्म विश्वास से भरने वाले तुम,
मुझको मुझसे पहचान कराने वाले तुम,
मेरी जिन्दगी सवारने वाले तुम,
मुझको गले से लगाने वाले तुम,
इस पतंग की डोर थामने वाले तुम,
मेरे सारे भ्रम मिटाने वाले तुम,
मुझको आत्मनिर्भर बनाने वाले तुम,
मुझे नया जन्म देने वाले तुम,
मुझे बनाने वाले तुम,मुझे सवारने वाले तुम
किन्हीं-किन्हीं बातों पर मेरे साथ जोर से ठहाके लगाने वाले तुम,
मेरे साथ सतगुरु मैं तेरी पतंग गाना गाने वाले तुम,
बारिशों की तरह मुझे खुशियों से भिगाने वाले तुम
अपनी थाली से मेरी थाली में पराठा गिराने वाले तुम,
स्कूल से सीधे मिलने आऊं तो मेरे लिये भोजन की थाली उठाकर रखने वाले तुम,
मेरी भावनाओं को पढ़ने वाले तुम,
मुझको अपने प्रेम का खजाना देने वाले तुम,
मीठी-मीठी यादों को देने वाले तुम,
मेरे लिये हो सबसे बढ़कर तुम,
मेरे चेहरे की मुस्कान तुम,मेरी आंखों की चमक भी तुम,
मेरे हृदय में रहने वाले तुम,मेरे सिर का ताज तुम,
अपना सत्संग देकर मेरे जीवन को धन्य करने वाले तुम।

बहुत-बहुत धन्यवाद है गुरुदेव हमारे जीवन में आने के लिये।

आपके चरणों की सेविका

सन्त के मिलन से भक्ति की गारंटी

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ।।

यह लेख अपने गुरुदेव के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ। हमारे गुरुदेव की कही बात इस लेख में लिखी गयी है और धन्यवाद करती हूँ अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी का जिन्होंने मुझको यह गूंढ़ बात बतायी है जिसको इस लेख में लिखा गया है,जिससे मेरे हृदय में सन्त-महात्माओं के प्रति और भी श्रद्धा बढ़ गयी है|

मेरे मन में अक्सर ये बात आती है कि सन्त किसी को श्राप दे देते हैं तो उनका भी उद्धार हो जाता है आप गर्ग संहिता या किसी अन्य ग्रंथ में पढ़ो तो ऐसे बहुत उदाहरण मिल जाएंगे ,पर सोचिए जब वो किसी पर कृपा करते होंगे ,किसी से स्नेह रखते होंगे , उनका किसी को सत्संग प्राप्त होता होगा या जो संतों को प्यारा हो तो उसका क्या होता होगा ?

देखिये हम डॉक्टर के पास जब जाते हैं तो कैमिस्ट को कैसे ज्ञान हो जाता है कि ये दवाई इस बीमारी में दी जायेगी?एक उदाहरण आता है एक वैद्य थे वो नब्ज देखकर लोगों का जड़ी बूटियों से इलाज करते थे उनका एक नौकर था वो ही दवाई बनाता था तो वैद्य जी दवाई के घटक यानि जड़ी बूटियों का नाम लिख देते और वो नौकर दुकान से जाकर वो ले आता पर वो साथ-साथ उस दुकानदार को भी बोलता जो नाम लिखा है उसकी पहचान भी करा दो तो जैसे लिखा काली मिर्च तो दुकानदार ने उस नौकर को पहचान करा दी ये काली मिर्च है और अन्य जड़ी-बूटियों की भी पहचान कर दी ,अब वो वापस आकर दवाई कूटता फिर मरीज को देते हुए पूछता आप को मर्ज (बीमारी) क्या है ,तो इस तरह उसको पता चल गया कि कौन सी बीमारी में कौन सी दवाई देनी है धीरे -धीरे वो भी वैद्य हो गया और वो भी लोगों को दवाई देने लगा और लोग भी ठीक होने लगे तो किसी ने उससे पूछा कि आपको यह सब योग्यता कहाँ से आयी ?वो बोला मैं बिलकुल पढ़ा-लिखा नहीं हूँ ,मैं कुछ नहीं जानता था दवाई के नाम सीखे वैद्य जी से ,दवाई के घटक सीखे दुकानदार से और बीमारी की पहचान मरीज से हुई, कि आप को कौन सी बीमारी है? तो क्या हुआ जो-जो व्यक्ति जिस-जिस चीज का जानकार है उसके संपर्क में रहिए तो आपको वह चीज बिना अभ्यास के मिल जायेगी ,केवल उनसे नकल करते-करते सीख जायेंगे|

सन्त के पास क्या होता है?उनकी औषधि के घटक क्या हैं?ये जो ज्ञान,वैराग्य और भक्ति हैं ये उनके घटक हैं वे उनकी सही पहचान करा देते हैं|उनके मरीज हम ,आप और संसार में फसे बद्ध जीव हैं अब इसका क्या प्रमाण मिले तो देखिये हनुमान जी जब सीता जी की खोज करने जाते हैं तो उनकी भेंट लंका में विभीषण जी से होती है तो रामचरित मानस में आता है अब मोहि भा भरोस हनुमंता,बिनु हरि कृपा मिलहि नहि संता इसका अर्थ है – हे हनुमान्‌! अब मुझे विश्वास हो गया कि श्री रामजी की मुझ पर कृपा है, क्योंकि हरि की कृपा के बिना संत नहीं मिलते हैं |

इसका एक पारमार्थिक अर्थ या कह सकते हैं गूढ़ अर्थ हमारे गुरुदेव बताते जो मैंने अपने दादा से सुना है: अब मोहि भा भरोस हनुमंता ,भा का अर्थ संस्कृत में है ->ज्ञान | अब मोहि भा -अब मुझे ज्ञान हुआ, क्या ज्ञान हुआ ? मैं स्वयं को पहचाना |कैसे पहचाना? किसी सन्त का दर्शन करके ,तो हनुमान जी का दर्शन हुआ है और अब भरोसा हो गया सन्त मिल गए तो भगवान भी जरूर मिलेंगे ,विभीषण जी की नजर में हनुमान जी का मूल्य क्या है?उन्होंने हनुमान जी को ही कहा अब मोहि भा भरोस हनुमंता ये संबोधन कर रहे हैं विभीषण जी, बिनु हरि कृपा मिलहि नहि संता आपका दर्शन बिना राम जी की कृपा के नहीं हो सकता । पहले देखो वो खुद सन्त हैं भगवान का भजन करते हैं लेकिन ज्ञान नहीं है ,अंदर से ज्ञान कब हुआ ?जब हनुमान जी का दर्शन हुआ तो शब्द आया अब मोहि भा भरोस यानि पहले ज्ञान हुआ फिर भरोसा हुआ कि बिना भगवान की कृपा के सन्त नहीं मिलते,सन्त तभी मिलते हैं जब भगवान की कृपा होती है । ऊपर उदाहरण में बताया था जैसे वैद्य नब्ज देखते फिर दवाई देते और नौकर जो था उसको नब्ज देखना भी नहीं आता था और वो दवाई को पहचाना , रोग को पहचाना ,दवाई के घटक को पहचाना । वैद्य ने तो नाम लिखकर दिया नौकर को, तो वो नाम सीख गया तो नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं तो सन्त नाम दे देंते हैं और कहते हैं नाम जपो, माला करो। यदि कोई पढ़ा-लिखा ना हो, ग्रंथ, वेदान्त आदि नहीं पढ़ सकता हो और यदि भक्ति के साधन करने का और तीर्थ जाने का भी सामर्थ्य नहीं है तो नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं तो उसको वैद्य की तरह हाथ में अवयव दे देते हैं,यही नाम, ये ले ये जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधि के रोग की औषधि है ।

अब सन्त लोगों के पास ज्ञान कहाँ से आता है?जो हनुमान जी के पास ज्ञान था वो विभीषण जी ने कैसे पहचाना?तो वो जो ऊपर उदाहरण में नौकर था वो नब्ज देखना नहीं जानता था, वह रोगी से पूछता था कि रोग क्या है ?तो रोग की पहचान हो गयी | विभीषण जी जब जान गए हैं कि हनुमान जी लंका में सीता जी का पता लगाने आए हैं और ये राम जी के दूत हैं ,तो राम जी की सेवा में तो वो ही लग सकता है जो राम जी का प्रेमी होगा और प्रेमी ही भक्त कहलाएगा और भक्त वो होगा जिसकी संसार की इच्छायें शांत हो गयी हैं उसकी भगवान को पाने की ही इच्छा होती है और वो सन्त होता है| तो हनुमान जी सन्त है ये विभीषण जी पहचान गए क्योंकि वो खुद भी एक सन्त हैं और सन्त ,सन्त को पहचान जाते हैं | परिणाम क्या होता है दोनों को ही राम जी के दर्शन होते हैं |

हनुमान जी को योग्यता कहाँ से आयी?उनको राम जी कैसे मिले?अब प्रश्न आएगा ऐसा कौन है जिन्होंने हनुमान जी को बताया कि ये राम जी हैं । तो हमको पीछे इतिहास में जाना पड़ेगा

हनुमान चालीसा में आता है :

जुग सहस्त्र जोजन पर भानु।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।

अर्थ: सरल अर्थ यह है कि हनुमान जी ने एक युग सहस्त्र योजन की दूरी पर स्थित भानु यानी सूर्य को मीठा फल समझकर अपने मुख में रख लिया ।

इसका जो गूढ़ अर्थ है वह ये है कि जोजन का अर्थ दूरी से नहीं लगाना जोजन ->यानि जो मनुष्य (कोई भी जन )पर->के पास भानु->भा यानि ज्ञान ,अनु यानि विशेष तो भानु का अर्थ विशेष ज्ञान ।तो जिस व्यक्ति के पास विशेष ज्ञान होता है।

चार युग होते हैं सतयुग,त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग 

सतयुग->1,728,000 वर्ष ,त्रेतायुग-> 1,296,000 वर्ष , द्वापरयुग-> 864,000 वर्ष, कलियुग-> 432,000 वर्ष

जुग सहस्त्र ->तो कहते हैं ऐसे सहस्त्रों युग बीत जाएँ यानि कितने ही युगों के बीतने के उपरान्त कोई एक मनुष्य, गीता जी में भी बोलते हैं भगवान बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।7.19।।अब इस श्लोक को इस चौपाई से जोड़कर देखिए तो क्या बोलते हैं जुग सहस्त्र यानि बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। बहुत जन्मों के बाद या बहुत कल्प बीत जाएँ तब जो जन ->कोई मनुष्य पर भानु ->जिनको पूर्ण ज्ञान हो गया है , बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते कई जन्मों के बाद किसी एक मनुष्य के पास पूर्ण ज्ञान है, लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।उस महापुरुष के शरण जा करके उस ज्ञान को उनके द्वारा सुनना और अपने कानों से सुनकर अपने हृदय में धारण कर लेना चाहिये |

लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।सबसे मधुर फल क्या है ?भगवान से प्रेम ही सबसे मधुर फल है ,आत्म ज्ञान सबसे मधुर फल है,स्वयं की पहचान मधुर फल है उस परमात्मा से प्रेम करिये बस ।

इसका एक और अर्थ है अब देखो हनुमान जी जो हैं वो भोले बाबा (भगवान शिव) के अवतार हैं जुग सहस्त्र जोजन पर भानु। जिन भगवान शिव का सहस्त्रों युग बीत जाने पर जिनका विशेष ज्ञान कभी समाप्त नहीं होता ,सहस्त्र योजन बीत जाएँ तो भी वह ज्ञान समाप्त नहीं होता क्योंकि भगवान शिव खुद ज्ञानस्वरूप हैं , लीला करने के लिए ,राम जी की सेवा करने के लिए हनुमान जी का अवतार लिये हैं अब उनको ज्ञान चाहिये, वानर का शरीर धारण किया है, अपने ज्ञान को वो प्रकट नहीं कर सकते तो अपने को छुपाते हुए, उनकी इच्छा हुई ज्ञान होना चाहिये तो वह सूर्य नारायण के पास गए लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।लील्यो का मतलब ग्रहण किया है,यहाँ हनुमान जी, सूर्य नारायण यानि गुरु की शरण गए हैं और वहाँ से मधुर फल यानि ज्ञान प्राप्त किया है और भगवान श्री राम की सेवा करी है तो जो सूर्य नारायण ने ज्ञान दिया है तो उससे वह राम के निर्मल तत्व को जाने हैं और उनकी सेवा करी है ,गुरुदेव भगवान के पास जाकर उनके दिये हुए ज्ञान को अपने हृदय में रखा है, सूर्य को मुँह में नहीं रखा है,खाये नहीं हैं,निगला नहीं है उनसे ज्ञान प्राप्त किया है, लीला द्वारा उस तत्व को समझा और समझा कि सेव्य केवल राम जी ही हैं,दूसरा कोई नहीं हो सकता । ये भक्ति में इसका अर्थान्तर बोलेंगे। तो राम जी की अनन्य भाव से सेवा करिये इस ज्ञान का अर्थ अभिमान न होकर के राम जी से प्रेम और सेवा होनी चाहिए|     
बिना भा यानि ज्ञान के बात बनती नहीं है ,ज्ञान का मतलब ज्ञान का अभिमान नहीं होता है इसका अर्थ है जो आपका सच्चा स्वरूप है ,आत्मा है, आपका परम ज्ञान स्वरूप , परम-नित्य उसको सही-सही समझना अपना अर्थ शरीर आदि से ना करें |

वशिष्ठ जी भगवान राम को बार-बार कहते है : हे राम जी तुम निज का अर्थ आत्मा से कर शरीर से नहीं |जब हमारा अर्थ शरीर से होता है तो हम परमात्मा से अलग हो जाते हैं |तो जब ज्ञान होगा तो मेरा जो शरीर से जो संबंध है, माना हुआ है ,वह छूट जाएगा और परमात्मा से जो नित्य संबंध है वो उजागर हो जाएगा तभी हम भगवान से प्रेम कर सकते हैं |

जैसे किसी का कोई बहुत खास बचपन में खो गया जब वो बड़ा हो गया और आपको मिला तो आपने उससे सामान्य व्यवहार किया फिर आपको किसी ने बताया ये वही है आपका खास जो बचपन में खो गया था, उसका प्रमाण भी आपको दे दे, फिर आपका हृदय परिवर्तन हो जाएगा और अभी तक जो भावना थी वह भी बदल जाएगी |जिससे प्रेम नहीं था उससे प्रेम हो जाएगा ,ऐसे ही हमारा परमात्मा से नित्य संबंध है ,चैतन्य संबंध है ,बहुत ही प्रेम वाला संबंध है |भगवान को काल्पनिक मानते हैं जैसे कोई भगवान होगा लेकिन जब उससे परिचय होता है ,प्रेम होता है तो परिचय का मतलब ज्ञान होता है फिर भरोसा होता है फिर प्रेम। व्यवहार में भी तो ऐसे होता है पहले किसी को जानते हैं फिर भरोसा होता है फिर प्रेम होता है ,ऐसे ही तो व्यवहार नहीं निभाते ना, ये ही नियम भगवान पर लागू होता है। बस संसार के लिए यह आसक्ति कहलाती है और भगवान के लिए प्रेम कहलाता है |

जब हनुमान जी विभीषण जी के सामने आये तो विभीषण जी को भी भा भरोस->ज्ञान हुआ और भरोसा भी हुआ कि ये राम जी के भक्त हैं, बंदर नहीं हैं|तो सन्त मिलेंगे तो ये निश्चित हुआ कि भगवान जरूर मिलेंगे| सो बिनु संत ना काँहू पाई |भक्ति को संत के बिना किसी ने नहीं पाया ।7।119।9। अपनी तरफ से कोई नहीं पा सकता है अब इसका यह प्रमाण है कोई भगवान से बोले मुझे आपके चरणों की अनुपायनी भक्ति चाहिये ,भगवान कहते हैं कि भक्ति का तो मैं खुद भोक्ता हूँ ,मैं खुद भूखा रहता हूँ ,जो संत मेरी भक्ति से अघाये हुए रहते हैं वो ही भक्ति दे सकते हैं तो भगवान संत से मिलवा देते हैं ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।10.10।।  ऐसा बुद्धियोग मैं ( उनको ) देता हूँ कि जिस पूर्णज्ञानरूप बुद्धियोगसे वे मुझ आत्मरूप परमेश्वरको आत्मरूपसे समझ लेते हैं। तो भगवान ऐसा संयोग बना देते हैं बुद्धि को सुधारने के लिए संतों से मिलवा देते हैं ,भगवान अपनी तरफ से भक्ति नहीं देते,संयोग देते हैं संतों से मिलवा देते हैं|सन्त मिलेंगे तो निश्चित रूप से भगवान मिलेंगे |

जब सीता माता का अपहरण जब हो जाता है तो राम जी सबसे सीता जी का पता पूछते हैं पेड़ – पौधों से ,आकाश से,लोगों से ,सती और शंकर भगवान भी मिलते हैं लेकिन कोई बताता नहीं और जब हनुमान जी आते हैं वो ही शंकर जी का रूप हैं सन्त बनकर आते हैं, सूर्य नारायण से दीक्षा लेकर ,सन्त होकर सामने आये हैं तो ये निश्चित हो गया सीता जी मिलने वाली हैं जब तक हनुमान जी नहीं मिले थे, सीता जी भी नहीं मिली थी, जब हनुमान जी मिले तो सब रास्ते खुले चले गए। इसका मतलब ये हुआ सीता जी को मानो प्रकृति,तो भगवान की प्रकृति की भी पहचान कब होगी जब किसी सन्त के शरण होंगे |

सीता जी प्रकृति और राम जी चेतन परमात्मा |सीता जी की खोज तब होगी जब हनुमान जी होंगे और हनुमान जी सन्त हैं ये विभीषण पहचान गए तो सीता जी को यानि प्रकृति को भी आप तब पहचानेंगे और भगवान को भी जब पहचान पाएंगे जब सन्त कृपा होगी  | अब मोहि भा भरोस हनुमंता
बिनु हरि कृपा मिलहि नहि संता और भगवान जब कृपा करेंगे तो वो अपने को ही देंगे उसके लिए वो संतों से मिलवा देंगे |

सन्त की शरण होने से गारंटी है इस बात की ,निश्चित है बिल्कुल, प्रमाणित सिद्धान्त है भगवान आपसे बिना मिले रह नहीं पायेंगे ,जितने भी भक्ति के साधन हैं वो बिन सन्त कृपा के मिल ही नहीं सकते यदपि यह है भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानीपर मिलेगी कैसे ?वो भी तो अधीन है, संतों के पास चाबी है उसको खोलने की तो ट्रिक(trick)है | माया को पहचानो अलग और परमात्मा को पहचानो अलग , यानि सन्त के शरण रहने वाले को माया और परमात्मा की पहचान अलग-अलग हो जाती है और जब अलग-अलग खोज हो जाती है तो परमात्मा से जो नित्य संबंध है, सत्य संबंध है सदा रहने वाला संबंध है वो प्रकट हो जाता है फिर वो भगवान से प्रेम करता है, इसी को ही ज्ञान-युक्त भक्ति कहते हैं |

ये सन्त ही दे सकते हैं कोई और नहीं दे सकता पढ़ने से नहीं आएगा ,सन्त की वाणी पर भरोसा करने से स्पष्ट हो जाएगा ऐसा ही होता है। परमात्मा में तीनों तत्व हैं परमात्मा का शुद्ध तत्व ,प्रकृति तत्व और संसार ,इन तीनों को सन्त अच्छे से पहचानते हैं |वो विद्वान सन्त परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को उनके प्रकट स्वरूप संसार को और उनके अप्रकट स्वरूप प्रकृति को भी जानते हैं । ये माया है कि नहीं है ,अविद्या है कि नहीं है, ये ना दिखायी जा सकती है ना देखी जा सकती है जैसे हाथ में दर्द हो तो वो ना देखा जा सकता है ना दिखाया जा सकता है सिर्फ महसूस किया जा सकता है ,ऐसे ही ये किसी सन्त के द्वारा इसका निरूपण किया जाता है, भौतिक रूप से यह संसार घटकों से मिलकर बना है और यह पंचभौतिक प्रपंच है पर इसके पीछे परमात्मा हैं वो ही सब करते हैं ये सब सन्त –महात्मा जानते हैं।  

गुरुदेव कहते जो संतों को प्यारा होता है वो भगवान को कितना प्यारा होता होगा सोचो ,जो संतो को प्यारा लगता है वो भगवान को सबसे प्यारा लगता है और सन्त ही उसका हाथ पकड़कर भगवान के हाथ में दे देते हैं और कह देते हैं ये आपका हो गया इसकी बाँह पकड़ लेना इसके साथ सही निभाना तो फिर भगवान कहते हैं संतों ने इसकी बाँह पकड़ कर हमारे हाथ में पकड़ाई है तो हम भी इसके साथ निभायेंगे।    

अदिति

आसक्ति किससे?

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ।।

यह लेख अपने गुरुदेव के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ। हमारे गुरुदेव की कही बात इस लेख में लिखी गयी है और धन्यवाद करती हूँ अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी का जिनके पूर्णत: सहयोग से यह लेख पूर्ण हुआ है |

गुरुदेव बताते हैं कि ठाकुर जी के जिम्मे हो जाना चाहिये,सबसे पहले भगवान उसकी बाँह पकड़ते हैं जो उनकी शरण होता है,शरणागत यानि जो सारे का सारा,पूर्णत: भगवान का हो गया,जिसने कोई अलगपना बचा कर नहीं रखा।मान लो जो कुछ मेरे पास है,जो कुछ मैं हूँ,जैसा मैं हूँ सारा का सारा भगवान को समर्पित हो जाऊँ,समर्पित हो जाने का मतलब तुम्हारा ही सब प्रकार से हो गया,शरणागत का अर्थ है जो सारा का सारा,अलगपना रखना ही नहीं, प्रभु जो कुछ हो रहा है तुम्हारी इच्छा से हो रहा है।अपने आपको ना सारे का सारा ये जो शब्द है ना ये उसका सार है।

गीता की असली शुरुआत यहाँ से होती है अर्जुन कहता ही जाता है कि युद्ध करने से सब वीर मारे जायेंगे,मेरे अपने भाई,गुरु,पितामह खड़े हैं सामने,सब दूषित हो जायेगा,कुल धर्म सब नष्ट हो जायेगा, अर्जुन जब ये बोलता है तो उसको अपने स्वजनों को देखकर दया आ गयी है , “कृयाविष्ट:” उसमें कायरता आ गयी, तो यह कृपा पहले नहीं थी ,आगन्तुक दोष है |जो कृपा होती है हृदय से उद्गम होती है लेकिन घटना को देखकर अगर बाहर से क्रिया आ रही है तो उसको कृपा नहीं कहते ये आसक्ति कहलाती है |

अब आसक्ति क्या होती है ? जब हम किसी का चिंतन बार बार करते हैं तो जिसको हम महत्व देते उसी का चिंतन होता है |अब देखो भगवान ने सबको बनाया है मुझको, आपको ,सभी को |हमने क्या किया है उसको भगवान का ना मानकर अपना मान लिया है हमारे ग्रंथ ये कहते हैं कि सब भगवान ही बने हुए हैं गीता जी में भगवान कहते हैं सब मैं बना हुआ हूँ| हमने क्या करते हैं मेरा भाई , मेरा चाचा, मेरी बुआ आदि हम मेरापना कर लेते हैं | अब देखो बने तो सब भगवान हैं पर हम उनको नहीं पहचानते और अपने को भी नहीं जानते तो इसको बोलते हैं अन्य में अन्य अध्यास “अनन्योध्यास” |  अनन्योध्यास में क्या हुआ है भगवान में अपनी और अपने रिश्तेनाते दारों, सगे संबंधियों की कल्पना कर ली तो भगवान की सृष्टि की, भगवान जो बने हुए हैं उसको भूलकर हमने मैं पना जोड़ लिया मेरे माता , मेरे भाई आदि इसको कहते हैं आसक्ति |जो भगवान की बनाई हुई सृष्टि है जिसमें सब भगवान बने हुए हैं उसको भूल मैं पना करके अपनी सृष्टि बना ली |ऐसे ही अर्जुन के साथ हुआ उसको कृपा आई है अपनेजनों को देखकर यह कृपा बाहर से आयी है उसके हृदय से नहीं निकली, संबंध मानने के कारण से आयी है,उसने अपनी सृष्टि बना ली है और भगवान की बनाई हुई सृष्टि को भूल गया ,यहाँ से आसक्ति का जन्म होता है| आसक्ति में हम अपने स्वरूप को भूल जाते हैं ,जब हम भगवान की बनायी सृष्टि के एक भाग में मैं और मेरापन कर लेते हैं तो यह आसक्ति का मुख्य बिन्दु होता है |

इसकी दो प्रक्रिया ग्रंथो में बतायी है अनन्योध्यास ज्ञान में ऐसा बोलते हैं अन्य में अन्य की कल्पना कर ली एक ब्रह्म में मेरी और औरों की कल्पना कर ली है ,मेरे की कल्पना कर ली है उसमें मन बार –बार चिंतन करता है और चिंतन होना चाहिए भगवान का और होता है मेरा और मेरेपने का |अगर किसी का बेटा बीमार हो गया ,बोलता है मेरा बेटा बीमार हो गया और बेटे के लिए परेशान हैं ये आसक्ति हुयी वो परमात्मा ही बेटा बना हुआ है परंतु उसने संबंध जोड़ लिया है मेरापन करके , पिता है तो पुत्र है, पुत्र है तो पिता है तो इसको सापेक्ष संबंध बोलते हैं | सापेक्ष संबंध में हम खुद अपनी सृष्टि बना लेते हैं| भगवान से हमारा निरपेक्ष संबंध होता है किसी कारण से नहीं है ,भगवान और हम अलग नहीं हैं ,सब रूप में भगवान ही हैं पर हम उसको अज्ञानवश अलग मानते हैं तो ज्ञान में ये आसक्ति का कारण होता है |

भक्ति में इसको ऐसे करेंगे सब भगवान ही बने हुए हैं ,तो इसमें क्या करना चाहिए जो भगवान को भूलकर मैं और मेरे की कल्पना कर ली है इसका त्याग कर दें तो भगवान की ही बनायी सृष्टि रह जायेगी फिर नामरूप या बोलेंगे भावरूप या बोलेंगे जो एक से बहुत सारे बना लिए हैं इसका निर्णय जब करेंगे तो इसमें पहले अपना हटाएँगे फिर भगवान की बनायी सृष्टि में पहुचेंगे भगवान की सृष्टि में जो नाम नामरूप कल्पना कर रखी है बहुत सारे लोगों की इस कल्पना को जब हटा देंगे तो शुद्ध जीव रह जाएगा तो जब इसका सही विवेक करेंगे तो ईश्वर से हमारा सही संबंध जुड़ जायेगा तो हम ब्रह्म को पहचान लेंगे ,आसक्ति मिट जाएगी  |

देखो सब मन ने ही माना है तो पहले ये स्वीकार करें कि सब भगवान के ही बनाए हुए हैं अब ना आप रहे ना कोई और सब भगवान के बनाए लोग रह गये फिर उसके बाद ये लोग भी नहीं है सब ईश्वर ही है सब, अब सिर्फ ईश्वर ही रह गया इसके ऊपर जाएंगे तो ब्रह्म सत्ता ही सत्य है ,ये आसक्ति मिटाने का सूत्र है सगुण रूप निर्गुण से ही होता है तो सब ब्रह्म ही ब्रह्म है | सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् – “सर्वत्र ब्रह्म ही है।” (छान्दोग्य उपनिषद सामवेद)

तो अर्जुन को अपने स्वजनों को देखकर दया आ गयी उनके ऊपर कि मैं अपने भाई, गुरु, पितामह को मारना नहीं चाहता वो भगवान की बनाई हुई सृष्टि को भूल गया और खुद की सृष्टि बनायी, उसने सापेक्ष संबंध जोड़े और कहता जाता है कि युद्ध करने से सब वीर मारे जायेंगे,मेरे अपने भाई,गुरु,पितामह खड़े हैं सामने,सब दूषित हो जायेगा,कुल धर्म सब नष्ट हो जायेगा, वो ऐसे कहता ही रहता है और भगवान सुनते ही जाते है फिर आखिर में कहता है फिर भगवान बोलते हैं नहीं तो बोलते नहीं हैं।

अर्जुन कहते हैं: कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः । यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌ ॥कार्पण्यदोष(कायरता वाला स्वभाव) से मेरा स्वभाव ढक गया है मैं ऐसा वीर क्षत्रिय लेकिन कार्पण्यदोष से मेरा स्वभाव ढक गया है।

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः -कायरता वाले दोष से मेरा स्वभाव ढक गया है पहत माने ढक जाना,मैं इतना वीर क्षत्रिय पर युद्ध से बचना चाहता हूँ। पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः:- मैं तुमसे पूछता हूँ,मैं धर्म के विषय में मूढ़ हो गया हूँ मेरी बुद्धि काम नहीं कर रही है।यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे:- जिसमें मेरा श्रेय हो,भला हो मेरे लिये कहिये। शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌:-मैं तुम्हारा शिष्य हूँ और तुम्हारी शरणागत हूँ,तुम्हारे प्रपन्न हूँ मुझको शिक्षा दीजिये।

प्रपन्न का अर्थ होता है शरण हुए। प्रपन्न यानि कि जैसे किसी के पैर छूने है तो क्या करेंगे दायें हाथ से दायें पैर और बायें हाथ से बायें पैर को छुएंगे तो क्रॉस बन जायेगा इसको कहते हैं प्रपन्नता,सन्त महात्मा के पास ये शब्द बहुत प्रयोग होता है जैसे आप बोलोगी मैं महाराज जी के प्रपन्न हूँ।शिष्य और गुरु का जो नाता होता है उसमें शिष्य गुरु के प्रपन्न होता है प्रपन्नता मतलब उसके ही चरण पकड़ लेता है, आप ही मेरे सब कुछ हो इसका अर्थ सब कुछ मेरे आप ही हैं।

जब अर्जुन शिक्षा देने की बात करता है फिर भगवान कहते हैं:- हे अर्जुन तू बात तो बहुत पण्डितों वाली करता है लेकिन जो विद्वान पण्डित होते है ना वो जिनके प्राण चले गये हैं और जिनके प्राण नहीं गये हैं उनके लिये भी शोक नहीं करते हैं।

देखो कोई चला जाये,जिसका शरीर चला जाये हम कितना रोयें,पीटें,चिल्लाएं क्या गया हुआ कभी वापिस लौटता है?तो जो उसके लिये जो विद्वान पण्डित होते हैं वो शोक नहीं करते हैं।जिसका जन्म हुआ है मृत्यु तो उसकी होती-होती ही है,जो आज बालक है वो किशोर तो होगा ही होगा,जो आज किशोर है वो युवा होगा ही होगा,जो आज युवा है वो कल अधेड़ होगा ही होगा,जो आज अधेड़ है वो कल बूढ़ा होगा ही होगा। तो जो विद्वान होते है ना,पण्डित होते हैं,जानकर होते हैं वो इसके लिये शोक नहीं करते हैं।

एक घटना है:-एक का बेटा मर गया,तो सबसे बड़ा दुख मानते हैं किसी का बेटा मर जाये ।संसार में सबसे बड़ा दुख कौन सा है?जिसका जवान बेटा चला जाये।सबसे बड़ा दुख…जिसका जवान बेटा चला जाये तो उसके दुख का क्या ठिकाना है। एक का जवान बेटा मर गया तो बाहर बैठक थी,कमरा सा था ,अंदर लोग रो रहे थे सब, चिल्ला रहे थे भई बेटा मर गया था। संयोगवश एक सन्त आ गये तो उन्होंने बताया भैया में गंगा जी से चला हूँ और चलते-चलते मेरे को कहीं भोजन नहीं मिला तो किसी ने बताया वहाँ चले जाओ वहाँ तुमको भोजन सही मिल जायेगा तो मैं इस उददेश्य से आया हूँ कि तुम्हारे यहाँ मुझे भोजन की प्राप्ति हो जायेगी। अब वो बड़े धर्मसंकट में,अंदर बेटा मरा पड़ा है और यहाँ महात्मा खड़ा है और कहते हैं मैं भूखा प्यासा हूँ मुझे भोजन कराओ,अब क्या करूं? तो सोचा मरा हुआ बेटा तो लौटता नहीं लेकिन महात्मा द्वार से भूखा-प्यासा लौट गया ना तो ये बहुत बड़ा अपराध होगा।तो उसने अपनी पत्नी से पूछी ये बात तो वो बोली मैं तुम्हारी राजी मैं राजी हूँ। तो ऐसा है महात्मा को भोजन करा देना चाहिये तो चलता रहे अंदर जो रोना-पीटना है,होता रहे।तुम जाओ स्नान करके रसोई में भोजन बनाओ।

महात्मा को भोजन परोसा तो महात्मा बोले मैं अकेला नहीं खाता तुम खाओगे मेरे साथ तो खाऊंगा नहीं तो नहीं खाऊंगा। जिसका बेटा मर गया हो उसको क्या भोजन अच्छा लगेगा?लेकिन वो ज्यादा ही पीछे पड़ गये तो बोले एक आद ग्रास खा लेंगे तो उनके लिये भी थाली लगकर आ गयी तो उन्होंने एक आद ग्रास खा लिया फिर महात्मा बोले ऐसे नहीं तुम्हारा एक बेटा है ना उसको भी बुलाओ और बेटा अंदर मरा पड़ा है अंदर उसके लिये लोग रो रहे हैं अब बेटे को कैसे बुलायें?बड़ा धर्मसंकट..कैसे समझायें बेटा तो मर गया है। उसने कहा बेटा तो महाराज जी,बेटा तो महाराज जी मर गया है अंदर रो रहें हैं उसके लिये।महात्मा बोले धिक्कार है तेरे बाप होने पर ,तेरा बेटा मर गया और तू मेरे साथ भोजन करने बैठ गया है। उसकी पत्नी को बुलाया,बोले तेरा बेटा मरा पड़ा है तूने भोजन कैसे बनाया?तो वो बोलीं, मैं तो पति की आज्ञाकारिणी हूँ इन्होंने कहा नहीं-नहीं महात्मा द्वार से लौट जाये तो ये अपराध होता है और श्राप देकर जायेगा इसलिये इनको भोजन कराना चाहिये ।बेटा तो गया अब गया लौटना तो है नहीं अब मुझे पतिदेव की आज्ञा का पालन करना है फिर बेटे की पत्नी भी थी उसको भी बुलाया कि तुमने कैसे?वो बोली मैं क्या करूं मैं तो इनके अधीन हूँ जैसे ये लोग करते हैं वैसे ठीक है।फिर महात्मा ने बेटे को बुलाया तो बेटा उठकर आ गया। सन्त क्या थे ,भगवान थे।

अब क्या है उन्होंने ये बताया कि गृहस्थ में रहकर ना किसी से ज्यादा मोह नहीं करना चाहिए । मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥ तो जो ये मोह है ना ये मोह कहीं ना कहीं दुख देता है किसी में अतिशय आसक्ति नहीं करनी चाहिये।भगवान को छोड़कर या अच्छे सन्तों को छोड़कर और किसी में अपने मन की आसक्ति नहीं रखनी चाहिये।ये है कि जो यहाँ ये कथा में कह रहे हैं कि जो विद्वान पण्डित होते हैं वो जो लोग चले गये हैं दुनिया से उनके लिये भी शोक नहीं करते और दुनिया में जो रह रहे हैं उनके लिये भी शोक नहीं करते।

आये है सो जायेंगे, राजा रंक फ़कीर ।
इक सिंहासन चढ़ी चले, इक बंधे जंजीर ।

सब दुनिया जाने वाली है,इसलिये किसी में भी बहुत आसक्ति नहीं होनी चाहिये।एक भगवान के चरणों में आसक्ति करनी चाहिये ,एक अच्छे सन्त हों सही जिनसे हमारा कल्याण भला होता हो,और जो हमको भगवान से प्रेम कराने वाले हैं ऐसे सन्तों से लगाव रखना चाहिए बाकि सब दुनिया से संबन्ध काट देना चाहिये ,थोड़े दिन का होता है फिर वो कट जाता है।

ये सारी हरिचर्चा मेरे गुरुदेव स्वामी श्री प्रबोधानन्द महाराज के श्री मुख से कही गयीं हैं ,हम उनके एक छोटे से यंत्र हैं और उनके द्वारा कही हुई बात यहाँ प्रस्तुत की गयी है।

प्रबोधसुधा वर्षण

रामहि केवल प्रेम पियारा

यह लेख अपने गुरुदेव स्वामी श्री प्रबोधानन्द जी महाराज के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ ।

जैसे मुझे मेरे गुरुदेव ने बताया था वो ही यथार्थ लिखने जा रही हूँ।मैं धन्यवाद करती हूँ भगवान श्री कृष्ण का जिन्होंने मुझे ऐसे गुरुदेव दिये जिन्होंने मेरा जीवन प्रेम से भर दिया और सही मायने में प्रेम का मतलब सिखाया।

गुरुदेव कहते भगवान ने प्रेम दिया है ,लेकिन प्रेम किससे करना चाहिये? रामचरितमानस में आता है रामहि केवल प्रेम पियारा, जानि लेहु जो जानहि हारा।
अगर प्रेम करना हो तो केवल राम जी से करो।
दूसरा नम्बर सन्तों का भी है,सन्तों का तो ऐसे बताते हैं कि सन्त की याद आ जाय ना ,,,संत दरस जिमि पातक टरई,सन्तों के दर्शन करने से पाप-ताप सब नष्ट हो जाते हैं और प्रेम करना हो तो कान्हा से करें,सन्त से भी करें लेकिन सन्त का उददेश्य भी केवल कान्हा ही होते हैं,सन्त इसलिये ही होते हैं..कान्हा से प्रेम करने के लिये ।तो हमें भगवान श्री कृष्ण से प्रेम करना चाहिये।

अदिति

स्थूल शरीर,सूक्ष्म शरीर व कारण शरीर और पूर्ण भक्ति

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ।।

यह लेख अपने गुरुदेव के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ और धन्यवाद करती हूँ अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी का जिन्होनें यह विषय मुझे समझाया है और उनकी ही बतायी सब बात मैं यहाँ लिख रही हूँ।

स्थूल शरीर :स्थूल शरीर की उपलब्धि जागृत में होती है ,जागते हुए हम मानते हैं भगवान हैं ,तो भगवान ने अपना अनुभव कराने के लिये हमको जागृत अवस्था दी है तो आँख से कौन देखता है ?बोलेंगे हम देखते है हम से मतलब शरीर से नहीं जो असली में आप हो उससे है ।तो जो भी यह क्रिया होती है देखना,चलना आदि यह रजोगुण में आयेंगी जिसके कारण हमको स्थूल शरीर दिखायी पड़ता है।पर याद रखिये आँख आप नहीं हो, देखने वाले आप हो । स्थूल शरीर विकारों वाला होता है इसमें वृद्धि ह्रास और उत्त्पत्ति विनाश होता है। यह शरीर अन्त:करण के प्रभाव से कार्य करता है यानि जितने हमारे कर्म के भोग हैं वो अन्त:करण (मन,बुद्धि,चित्त,अहंकार) में रहते हैं, तो जो भी ये सुख दुख का भोग करें या भजन पूजन करें कुछ भी कर्म करेंगे,कोई भी क्रिया होगी यानि रजोगुण जो होगा वह अन्त:करण की बिना सहायता के नहीं हो सकता और अन्त:करण बिना चेतन के चल नहीं सकता क्योंकि मन और बुद्धि जड़ हैं।आत्मा मन से जुड़कर देखता है ,जागृत में इसको जगत या विश्व कहते हैं।

सूक्ष्म शरीर: सूक्ष्म शरीर की उपलब्धि स्वप्न में होती है,हमको जो हमारे बारे में पता होता है वह अज्ञान (जैसे मैं इस शहर में रहता या रहती हूँ आदि)इसमें रहता है ,सूक्ष्म शरीर का जो अनुभव होता है वो स्वप्नावस्था में या विचार करने पर होता है ,कार्य वो जागृत में भी कर रहा होता है पर उसका अनुभव नहीं होता है क्योंकि स्थूल शरीर को ही हम मैं मानकर रहते हैं तो स्थूल का ही हमको ज्यादा ज्ञान रहता है।इसका अनुभव के लिये बाहरी करण जो लगे हुए हैं जैसे आँख,कान,नाक,जीभ,त्वचा जब सो जाते हैं और जब स्वप्न देखते हैं तो वहाँ साक्षी होता है,आँखे नहीं होती हैं,स्थूल शरीर वहाँ नहीं होता वहाँ सूक्ष्म शरीर आदि से हम स्वप्न देखते हैं ,यह सतोगुण में होता है और इसको देखने वाले भी असली आप होते हो। स्वप्नावस्था में भगवान साक्षी होते हैं अन्त:करण वहाँ जगता है उसका नाम तेजस,एकमय और समष्टि में ब्रह्मा जी या हिरण्यगर्भ कहते हैं।सूक्ष्म शरीर में भी अविद्या निवास करती है,जीव को हर्ष,विषाद और ज्ञान का अभिमान होता है।सूक्ष्म शरीर में सुख, दुख, ज्ञान, अज्ञान और अहंभाव होता है।

कारण शरीर: कारण शरीर की उपलब्धि सुषुप्ति में होती है,गहरी नींद काल में होती है,सुषुप्ति में सत रहता है और यह अज्ञान है। भगवान ने जब संसार की रचना जब करी तो सबसे पहले प्रकृति बनी,प्रकृति भगवान के आश्रित रहती है और भगवान को ढक देती है इसको माया कहते हैं।समष्टि में माया बोलेंगे और एक व्यक्ति में इसको अविद्या बोलेंगे ।ऐसी ही अविद्या जीव को अधीन करती है और उसको ही विषय करती है, तो जो आपकी प्रकृति है वो आपके असली स्वरूप को ढक देती है अब बुद्धि में यह निश्चय है कि मेरा नाम ये है ,मैं यहाँ रहती हूँ यह सतोगुण का कार्य है।इसमें अपने सच्चे स्वरूप (आत्मा) को ढक दिया इसको अविद्या कहेंगे।जब गहरी नींद आयी तो उसमें बाह्यकरण और अन्त:करण दोनों सो गये इसको ही कारण शरीर कहते हैं।एक व्यक्ति में अविद्या कहते हैं ,जीव कहलाता है,प्राज्ञ कहते हैं,इसको अज्ञानावस्था भी कहते हैं लेकिन ये सत्य है क्योंकि जागने के बाद हमारी स्मृति वापस आती है और उठ कर हम कहते हैं हमको बहुत गहरी नींद आयी,सोते हुए हमको हमारा ज्ञान नहीं होता तो माया से ढके रहने के कारण हमको अपने असली स्वरूप का ज्ञान नहीं होता है।अविद्या जब आपको ढक देती है तो उसको ही कारण शरीर कहते हैं।

इसको और अच्छे से समझाने के लिये दादा ने दो तकनीकी शब्द सिखाये :

  1. अपहत
  2. उपहित

1. अपहत:- किसी चीज की ढक देना जैसे किसी पर्स में रूपये रख दिये तो रूपये ढक गये,होते हुए भी दिखायी नहीं पड़ेगे तो ऐसे ही कारण शरीर में अपहत हो जाते हैं,ढक जाते हैं।

2. उपहित:-किसी चीज पर दूसरे का रंग चढ़ जाये ,जैसे किसी कांच के गिलास में पानी है अब उसमें लाल रंग मिला दें तो पानी लाल रंग का दिखेगा ऐसे ही हम अपने असली स्वरूप पर हम रंग चढ़ा देते हैं,परमात्मा का रूप है लेकिन शरीर समझते है तो सूक्ष्म और स्थूल शरीर में उपहित हो जाते हैं।

ये ही अवस्थात्रये है जो जागते में,सपने में,सुषुप्ति में अज्ञान को देखने वाली अवस्था को जानने वाला है।

जब ये तीनों शरीर भगवान श्री कृष्ण की सेवा में लग जायें तो यह पूर्ण भक्ति होती है।स्थूल से ठाकुर जी का श्रृंगार,आरती करना,तीर्थ जाना ये सब क्रियात्मक सेवा हो गयी। सूक्ष्म से मनन करना,मन में जप करना,स्मरण करना यह अन्त:करण के लगने से होता है ये अंदर से ज्ञानात्मक सेवा हो गयी और कारण शरीर अज्ञान अवस्था होती है हमको ऐसे अनुभव करना चाहिये हम भगवान के साथ थे तो हमको संसार का पता नहीं चला,जब हम भगवान के साथ रहेंगे तो ना माया का प्रभाव होगा, ना अविद्या का प्रभाव हो सकता है तो इसको पूर्ण भक्ति कहते हैं।भगवान में अह्लादिनी शक्ति होती है जो अन्त:करण में प्रकट होती है जिसके कारण अन्त:करण में प्रसन्नता होती है और प्रेमा भक्ति कारण शरीर में प्रकट होती है फिर भगवान हृदय में आकर बैठते हैं।भगवान का ईश्वरीय गुण है उनका सब कुछ करने का सामर्थ्य है वो आँख के सामने आ भी सकते है और छुप भी सकते हैं।

अदिति