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भगवान की प्राकटय लीला

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ।।

यह लेख अपने गुरुदेव स्वामी श्री प्रबोधानन्द जी महाराज के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ और धन्यवाद करती हूँ अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी का जिन्होंने हमारा इस लेख में पूर्ण सहयोग किया है।

सर्वं खल्विदं ब्रह्म , यह सब ब्रह्म है। यस्मात् परं नापरमस्ति किंचित्- इसके आगे-पीछे और कुछ भी नहीं है। तो फिर ब्रह्म का प्राकट्य क्या होता है कोई चीज पहले से लुप्त होतो तो वो प्रकट हो लेकिन जो नित्य विराजमान है वो प्रकट कैसे होगा? वह भगवान हैं ,निर्गुण हैं ,निराकार हैंं इसमें कोई संदेह नहीं है वो अपने भक्तों पर कृपा करने के लिये सगुण रूप धारण करते हैं ये उनका प्राकटय है।भगवान तो निर्गुण निराकार-सगुण साकार भी हैं ।
लोकवत्तु लीलाकैवल्यं (ब्रह्मसूत्र)अर्थात् सृष्टि उसकी लीला का विलासमात्र है।
लीला क्या होती है? हमारे गुरुदेव बताते जिसका कोई हेतु ना हो,जो निस्वार्थ हो।
स्वयं भगवान ही लीलारूप हैं।विराट विश्व उनकी लीला का ही क्षेत्र है,उनकी प्रत्येक लीला का गोपनीय रहस्य छिपा रहता है जिसे संसार नहीं समझता।भगवान की लीला विश्व में नित्य ही हुआ करती हैं,परन्तु अनित्य में लिप्त होने के कारण हम उन्हें समझ नहीं पाते।
स वा इदं विश्वममोघलील:
सृजत्यवत्यत्ति न सज्जतेऽस्मिन् ।
भूतेषु चान्तर्हित आत्मतन्त्र:
षाड्‍वर्गिकं जिघ्रति षड्‍गुणेश: ॥ ३६ ॥
न चास्य कश्चिन्निपुणेन धातु-
रवैति जन्तु: कुमनीष ऊती: ।
नामानि रूपाणि मनोवचोभि:
सन्तन्वतो नटचर्यामिवाज्ञ: ॥ ३७ ॥
स वेद धातु: पदवीं परस्य
दुरन्तवीर्यस्य रथाङ्गपाणे: ।
योऽमायया सन्ततयानुवृत्त्या
भजेत तत्पादसरोजगन्धम् ॥ ३८ ॥
(श्री मद्भा॰ 1.3.36-38)
भगवान की लीला अमोघ है।वे लीला से ही इस संसार का सृजन,पालन और संहार करते हैं,किन्तु इसमें आसक्त नहीं होते।प्राणियों के अन्त:करण में छिपे रहकर ज्ञानेन्द्रिय और मन के नियन्ता के रूप में उनके विषयों को गृहण भी करते हैं, परन्तु उनसे अलग रहते हैं,वे परम स्वतंत्र हैं- ये विषय कभी उन्हें लिप्त नहीं कर सकते। जैसे अनजान मनुष्य जादूगर अथवा नटके संकल्प और वचनों से की हुई करामात को नहीं समझ पाता,वैसे ही अपने संकल्प और वेदवाणी के द्वारा भगवान के प्रकट किये हुए इस नाना नाम और रूपों को तथा उनकी लीलाओं को कुबुद्धि जीव बहुत सी तर्क युक्तियों के द्वारा नहीं पहचान सकता है।चक्रपाणि भगवान की शक्ति और पराक्रम अनंत हैं-उनकी कोई थाह नहीं पा सकता है।वे सारे जगत के निर्माता होने पर भी सदा सर्वथा उससे परे हैं।उनके स्वरूप को अथवा उनकी लीला के रहस्य को वही जान सकता है,जो नित्य निरंतर निष्कपट भाव से उनके चरण कमलों की दिव्य गन्ध का सेवन करता है-सेवा भाव से उनके चरणों का चिन्तन करता रहता है।
एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा यः करोति । तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ॥(कठोपनिषद 2.2)
जो परमात्मा सदा सबके अन्तरात्मारूप से स्थित हैं,जो अद्वितीय और सर्वथा स्वतंत्र हैं,सम्पूर्ण जगत में देव-मनुष्यादि सभी को सदा अपने वश में रखते हैं,वे ही सर्वशक्तिमान सर्वभवनसमर्थ परमेश्वर अपने एक ही रूप को अपनी लीला से बहुत प्रकार का बना लेते हैं।उन परमात्मा को ज्ञानी महापुरुष निरंतर अपने अंदर देखते हैं,उन्हीं को सदा स्थिर रहनेवाला-सनातन परमानंद मिलता है,दूसरों को नहीं।
भगवान दो रूपों में अपनी लीलायें प्रकट करते हैं एक निर्गुण और निराकार रूप में और दूसरा सगुण और साकार रूप में इसलिये इनकी लीला दो प्रकार की होती हैं।
दादा बताते हैं:भगवान जब खुद को प्रकट करते हैं तो वह भक्त पर कृपा करने के लिये स्वयं ही प्रकट होते हैं।भगवान को प्रकट करने का सामर्थ्य किसी में नहीं है, क्योंकि वो तो नित्य विराजमान हैं उनका कभी कोई अभाव नहीं होता तो वो हर समय,हर जगह हैं ।जो भगवान का अस्तित्व है वो कभी ऐसा नहीं हो सकता कि न हो अगर हम ये माने भगवान अभी प्रकट हुए तो पहले कहाँ थे तो उनके अस्तित्व पर सीमितता आ जायेगी,तो भगवान का जो अस्तित्व है ,वो तीनों कालों में है और जो काल की बाधा है न कि कहाँ प्रकट हो, कब प्रकट हो ये मनुष्य की बुद्धि के भेद हैं भगवान के ऊपर ये लागू नहीं होती। भगवान कभी भी, कोई भी रूप धारण कर सकते हैं। वो वराह रूप भी ले सकते हैं,मत्स्य रूप भी ले सकते हैं,नरसिंह रूप भी ले सकते हैं,मनुष्य रूप भी ले सकते हैं ,द्रौपदी की साड़ी बन गये क्या साड़ी अपने आप बढ़ सकती है?तो भगवान साड़ी रूप से प्रकट हो गये
गुरुदेव कहते: भगवान अपने भक्त के लिये क्या कुछ नहीं कर सकते ।सेनानाई के लिये नाई बन गये,कभी जनाबाई बन घर के सारे काम कर लेते,एक नाथ जी के लिये घर में सेवक बन गये, इनसे ज्यादा प्रेमी कौन है? तो ये भक्त पर विशेष कृपा करने के लिये, उनकी इच्छा के अनुसार कोई भी रूप धारण कर लेते,भगवान का अस्तित्व कभी किसी से बाधित नहीं होता,उनको कोई सीमा में नहीं बाँध सकता।जब मनुष्य भगवान के अलावा किसी पर विश्वास नहीं करता,किसी को नहीं मानता तो भक्त के लिये ,अनुग्रह करने के लिये ,भक्त की बात रखने के लिये ,अधर्मियों से भक्तों को बचाने के लिये,धर्म की पुन: स्थापना करने के लिये भगवान प्रकट होते हैं।

ज्ञान में बोलेंगे जब अज्ञान का पर्दा फट जाता है और माया का आवरण हट जाता है तो ये भगवान का प्राकटय होना है इसको आत्मअनुभूति बोलते हैं।
भक्त के लिये क्या है भक्त जो है उसका प्रेम रूखा नहीं है रसीला है और जब उसकी एक मात्र इच्छा दर्शन की है इतनी व्याकुलता बढ़ जाये कि रहा नहीं जाये, प्यारे दर्शन दीजो आये तुम बिन रहयो न जाय(मीरा) तो भगवान उसके लिये सगुण रूप से प्रकट होते हैं तब स्थान,काल का भेद नहीं होता।

भगवान के प्रकट होने के बहुत से हेतु होते हैं पर भक्त पर अनुग्रह करने का मुख्य कारण है।
सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥
हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥बा० का०120। घ।1।
भावार्थ-
हे पार्वती! सुनो, वेद-शास्त्रों ने हरि के सुंदर, विस्तृत और निर्मल चरित्रों का गान किया है। हरि का अवतार जिस कारण से होता है, वह कारण ‘बस यही है’ ऐसा नहीं कहा जा सकता (अनेकों कारण हो सकते हैं और ऐसे भी हो सकते हैं, जिन्हें कोई जान ही नहीं सकता)।

ये जय-विजय भी तो भगवान के द्वारपाल थे ,ये भी भगवान के भक्त थे इनको श्राप के कारण तीन बार असुर बनना पड़ा ,इनसे पूछा गया या सौ जन्म लो और भक्त बनकर या तीन बार असुर बनो और भगवान के द्वारा अपना उद्धार करवाओ ,तो ये सौ जन्म तक का बिछोड़ नहीं सह सकते थे तो इन्होनें तीन जन्म चुने,भगवान को जब लीला करना होता है तो सब कारण बन जाते हैं ,वो ही सब कारणों के कारण हैं।भगवान परम भोक्ता हैं, लीला करके वो ही आनन्द लेते हैं।
भगवान कृष्ण लीला पुरुषोत्तम हैं यानि सब कुछ वो ही करते हैं पर कर्तत्व का भार अपने ऊपर नहीं ओढ़ते।ये भगवान का प्रेमावतार है जिसमें ये अपने प्रेम और भक्ति की महिमा को भक्तों के हृदय में डालते हैं।

अब बात करते हैं कृष्ण अवतरण की गर्ग संहिता में आता है:
श्री जनक जी नारद जी से पूछते है: महामते! जो भगवान अनादि, प्रकृति से परे और सबके अन्तर्यामी ही नहीं आत्मा हैं, वे शरीर कैसे धारण करते हैं?(जो सर्वत्र व्यापक है,वह शरीर से परिछिन्न कैसे हो सकता है?)यह मुझे बताने की कृपा करें।
नारद जी ने कहा: गौ,साधु, देवता,ब्राह्मण और वेदों की रक्षा के लिये साक्षात् भगवान् श्री हरि अपनी लीला से शरीर धारण करते हैं।[अपनी अचिंत्य लीलाशक्ति से ही वे देहधारी होकर भी व्यापक बने रहते हैं।उनका वह शरीर प्राकृत नहीं चिन्मय है। ] जैसे नट अपनी माया से मोहित नहीं होता और दूसरे लोग मोह में पड़ जाते हैं,वैसे ही अन्य प्राणी भगवान की माया देखकर मोहित हो जाते हैं,किन्तु परमात्मा मोह से परे रहते हैं—इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है।

वाराह कल्प में धराधाम पर जब दानव,दैत्य,असुर-स्वभाव के मनुष्य और दुष्ट राजाओं के भारी भार से अत्यन्त पीड़ित हो ,पृथ्वी गौ रूप धारण करके,अनाथ की भांति रोती हुई ब्रह्मा जी की शरण में गयीं, ब्रह्मा जी ने धीरज बँधाया और देवताओं तथा शिव जी को साथ लेकर वे नारायण के वैकुण्ठ धाम में गये।वहाँ जाकर ब्रह्मा जी ने चतुर्भुज भगवान विष्णु को प्रणाम करके अपना सारा अभिप्राय निवेदन किया तब भगवान विष्णु देवताओं तथा ब्रह्मा जी से इस प्रकार बोले।
भगवान ने कहा: साक्षात भगवान श्री कृष्ण ही अगणित ब्रह्मण्डों के स्वामी,परमेश्वर, अखण्डस्वरूप तथा देवातीत हैं उनकी लीलायें अनंत एवं अनिर्वचनीय हैं।उनकी कृपा के बिना यह कार्य कदापि सिद्ध नहीं होगा, अत: तुम उन्हीं के अविनाशी एवं परम उज्ज्वल धाम में शीघ्र जाओ।
ब्रह्मा जी बोले प्रभो! आपके अतिरिक्त कोई दूसरा भी परिपूर्णतम तत्व है,यह मैं नहीं जानता कृपया आप मुझे उनके लोक का दर्शन कराइये।
फिर भगवान विष्णु उनको लेकर जब गये तो ब्रह्मांड के ऊपर पहुँचकर उन सबने ब्रह्माण्ड को तूँबे की भांति देखा और भी अन्य बहुत से ब्रह्माण्ड इधर-उधर लुढ़क रहे थे, यह देख सब विस्मित हो गये ।वहाँ से करोड़ों योजन ऊपर आठ नगर मिले फिर वो उस उत्तम नगर में पहुंचे,जो अनंत कोटि सूर्यों की ज्योति का महान पुंज जान पड़ता था ।वहाँ उन्होंने कमलनाल के समान धवल-वर्ण हजार मुख वाले शेष नाग का दर्शन किया और प्रणाम किया और शेषनाग की गोद में गोलोकधाम का दर्शन हुआ जहाँ मन,बुद्धि,चित्त,अहंकार, सोलह विकार तथा महतत्व भी वहाँ प्रवेश नहीं कर सकते,फिर गुणों के विषयों में तो कहना ही क्या है?

दादा बताते हैं :ऐसा कोई स्थान नहीं जहाँ भगवान न हो,और भगवान के अस्तित्व के बिना किसी का भी अस्तित्व नहीं है। सब लोक भगवान के हैं, वो अखिल ब्रह्मण्ड नायक हैं ,सब भगवान का ही स्थान है, किसी स्थान पर ,लोक में भक्त भगवान की चर्चा करे और हृदय में भगवद लीला क्रीड़ा करने लगे और आँखों में दिखायी देने लगे, वो जगह गोलोक हो जाती है ,गोलोक का अर्थ क्या है?अन्त:करण की गुफा में भगवान का निवास स्थान है,जिसने अपने इन्द्रिय समूह को बिल्कुल शान्त कर लिया है,इन्द्रियाँ जिनके बस में हैं ,जिनके अन्त:करण शुद्ध हो गये हैं,चित्त शुद्ध हो गये हैं और जिनका हृदय प्रिया-प्रियतम के प्रेम से पगा हुआ है, ऐसे जो ऐसे महापुरुष हैं उनको गोलोक के दर्शन होते हैं ,ऐसे हृदय रूपी कमल में राधाश्यामसुन्दर नित्य विहार करते हैं यही गोलोक है।
भक्त का शुद्ध हृदय ही गोलोक है।

अब फिर लीला की ओर चलते हैं: जब देवता आदि लोगों को गोलोकधाम के दर्शन हुए तब श्री कृष्णपार्षदा द्वारपाल का कार्य करती थीं। देवताओं को द्वार के भीतर जाने के लिये उद्यत देख उन्होंने मना किया। तब देवताओं ने कहा हम ब्रह्मा,विष्णु,महेश ,इन्द्र आदि देवता हैं श्री कृष्ण के दर्शन करने को आये हैं। द्वारपालिका ने ये बात अन्त:पुर में जाकर सुनायी तब शतचंद्रानना आयी और बोली आप किस ब्रह्माण्ड के निवासी हैं यह शीघ्र बतलाईये तब भगवान कृष्ण को सूचित करने जाऊँगी। सब आश्चर्यचकित हो गये और बोले अन्य ब्रह्माण्ड भी हैं और कहने लगे हम तो यही जानते थे कि एक ही ब्रह्माण्ड है ।उस सखी ने बोला यहाँ तो विरजा नदी में अनेकों ब्रह्माण्ड इधर-उधर लुढ़क रहे हैं जिसमें आप जैसे कई देवता रहते हैं।जान पड़ता है कभी यहाँ आये नहीं हैं ,अपनी थोड़ी सी ही जानकारी में ही हर्ष से फूल उठे हैं।जान पड़ताहै,कभी घर से बाहर निकले ही नहीं जैसे गूलर के फलों में रहने वाले कीड़े जिस फल में रहते हैं उसके सिवा दूसरे को नहीं जानते,उसी प्रकार आप-जैसे साधारण जन जिसमें उत्पन्न होते हैं,एक मात्र उसी को ब्रह्माण्ड समझते हैं।नारद जी कहते ,इस प्रकार उपहास का पात्र बने हुए देवता चुपचाप खड़े रहे,कुछ बोल ना सके सबको चकित देख भगवान विष्णु ने कहा ,जिस ब्रह्माण्ड में पृश्निगर्भ का सनातन अवतार हुआ है तथा त्रिविक्रम (विराट-रूपधारी वामन)के नख से जिस ब्रह्माण्ड में विवर बन गया,हम वहीं निवास करते हैं।यह सुन सखी शतचंद्रानना ने भूरि-भूरि प्रशंसा की और स्वयं भीतर गयी और आज्ञा पाकर उनको अंदर ले गयीं। दिव्य निज निकुंज को सबने प्रणाम किया और आगे चले वहाँ उनको हजार दल वाला कमल दिखायी पड़ा वह ऐसा सुशोभित था मानो प्रकाश का पुंज हो,उसके ऊपर एक सोलह दल कमल है, उसके ऊपर आठ दल वाला कमल है ,उसके ऊपर सिंहासन पर श्रीकृष्णचन्द्र राधिका के साथ विराजमान हैं। ऐसे दर्शन पाकर सब आनन्द के समुद्र में गोता लगाने लगे और श्रीकृष्णचन्द्र को प्रणाम किया।
उस समय सबके देखते देखते श्री हरि,नरसिंह, श्री कृष्ण के विग्रह में लीन हो गये,विराट पुरुष लक्ष्मी सहित,राम जी ,सीता जी संग तीन भाईयों सहित,नर-नारायण आदि सभी अवतार श्याम सुन्दर भगवान में लीन हो गये । सब देवताओं को आश्चर्य हुआ और सबको ज्ञात हो गया परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्र स्वयं परिपूर्णितम भगवान हैं, तब स्तुति की और अपने आने का प्रयोजन बताया और प्रार्थना की, कि धर्म के भार को धारण करने वाली इस पृथ्वी का उद्धार करने की कृपा करें।(गर्ग संहिता)
देखो पृथ्वी पर भार क्या है? पृथ्वी तो सत्ता रूप है।इस पर जो दैत्यभाव है,अहंकार है,मोह ममता है,उसी का भार है।जब मोह-ममता, अहंकार आदि से ग्रस्त होकर मनुष्य दैत्य पाय हो जाता है तब पृथ्वी के ऊपर उसका भार बढ़ जाता है।स्वामी अखंडानन्द जी

भगवान कृष्ण ने कहा ब्रह्मा,शंकर एवं अन्य देवताओं मेरे आदेशानुसार अपने अंशों से देवियों के साथ यदुकल में जन्म धारण करो।मैं भी अवतार लूँगा और मेरे द्वारा पृथ्वी का भार दूर होगा।मेरा वह अवतार यदुकल में होगा और मैं तुम्हारे सब कार्य सिद्ध करूँगा। वेद मेरी वाणी,ब्राह्मण मुख और गौ शरीर है।सभी देवता मेरे अंग हैं। साधुपुरुष तो हृदय में वास करने वाले मेरे प्राण ही हैं।अत: प्रत्येक युग में जब दम्भपूर्ण दुष्टोंद्वारा इन्हें पीड़ा होती है और धर्म,यज्ञ तथा दया पर भी अघात पहुँचता है तब मैं स्वयं अपने आपको भूतल पर प्रकट करता हूँ।
राधा जी के कहने पर श्री कृष्ण ने अपने धाम से चौरासी कोस भूमि, गोवर्धन पर्वत और यमुना नदी को भूतल पर भेजा।(गर्ग संहिता)
भगवान की एक प्रकट लीला होती है जब वो प्रकट होते हैं तब ,एक अप्रकट लीला होती है जो नित्य है जैसे गोलोक में होती हैं वैसे ही भूतल पर भी होती हैं आज भी लोगों को जो भगवद प्रेम में पग चुके हैं उनको भगवान की लीला के दर्शन होते हैं जो नित्य रूप से ब्रज में होती हैं।
भगवान ने कहा -मैं स्वयं वसुदेव और देवकी के यहाँ प्रकट होऊँगा ,मेरे कलस्वरूप ‘शेष’ रोहिणी के गर्भ से जन्म लेंगे,भीष्मक के घर रुक्मिणी ,कामदेव प्रद्युम्न जो रुक्मिणी के गर्भ से होंगे ,उनके तहाँ ब्रह्मा जी अनिरुद्ध बन प्रकट होंगे,ये वसु जो द्रोण नाम से प्रसिद्ध हैं ब्रज में नंद और इनकी पत्नि धरा देवि यशोदा का नाम धारण करेंगी, सुचंद्र ,वृषभानु तथा कलावती कीर्ति के नाम से प्रसिद्ध होंगी वहीं राधा जी का प्राकट्य होगा ऐसे करके भगवान ने गोपी,गोप,सखा सबको आदेश कर दिया।(गर्ग संहिता)

इधर अब वसुदेव का विवाह देवकी जी से हुआ,देवकी जी की विदाई के समय मथुरा के राजा उग्रसेन का बेटा अपनी चचेरी बहन देवकी और बहनोई वसुदेव के रथ की बागडौर पकड़ अपनी बहन को छोड़ने जा रहा था तभी आकाशवाणी हुई, अरे कंस तू किससे प्रेम कर रहा है? इसी देवकी के आठवें गर्भ से तेरी मौत होने वाली है।ऐसा सुनते ही कंस ने रथ की बागडौर छोड़ दी और देवकी के बाल पकड़ खींचा और मारने के लिये तलवार निकाल ली,जिससे इतना प्रेम ,उससे ही इतना वैर हो गया। देवकी कुछ नहीं कहती हैं,ना अपने भाई से ना अपने पति से ,कुछ भी नहीं बोलती ,क्षमा की मूर्ति हैं ,सहिष्णुता की मूर्ति हैं, शान्ति की मूर्ति हैं!!! ऐसी ही माता के गर्भ से भगवान प्रकट होते हैं ।
स्वामी अखंडानन्द महाराज भागवतमृत में बताते हैं:
देवकी क्या है? वह सर्वदेवतामयी हैं:’ देवकी सर्व-देवता’। देवकी सूक्ष्म बुद्धिरूपा हैं’- “दृश्यते त्वग्रया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि :”। इसी तरह वसुदेव जी क्या हैं? वे विशुद्ध सत्त्व हैं–“सत्वं विशुद्धं वसुदेवशब्दितम “।
वसुदेव जी ने रोका,बहुत समझाया पर वो जब नहीं माना तो वसुदेव ने प्रतिज्ञापूर्वक कंस से कहा जब भी संतान होगी ,मैं आपको लाकर ले दिया करूँगा। वो सत्यवादी थे,कंस ये बात जानता था। कंस ने देवकी जी को छोड़ दिया।
पहला पुत्र जब हुआ तो वसुदेव ले गये कंस ने कहा ये नन्हा मेरा क्या बिगड़ेगा, ले जाओ आठवाँ हो तो ले आना,नारद जी ने उल्टा-सीधा समझा दिया ताकि भगवान जल्दी प्रकट हो ,कंस ने देवकी-वसुदेव को कारगार में डाल दिया और एक-एक कर सब बालक मारने लगा। इस प्रकार उसने छ: बालक का वध कर दिया।सातवें गर्भ में तो बलराम जी थे तब भगवान ने योगमाया से कह बलराम जी को रोहिणी जी के गर्भ में करवा दिया।अब भगवान को गर्भ में आना था।
गुरुदेव कहते “जब भगवान देवकी के गर्भ में आये तो प्रकाश हुआ ,भगवान प्रकाश के रूप में आये ,भगवान कृष्ण का जन्म साधारण नहीं होता है, दिव्य होता है।”
वसुदेव ने देवकी को मानसिक दीक्षा देकर गर्भ में भगवान की स्थापना की।भगवान तो सब जगह रहते हैं तो इसलिये गर्भ में भी रहते हैं।
जब कंस ने देवकी की दीप्ति देखी इसके गर्भ में मुझको मारने वाला आ गया है क्या? यही कारण है कि भगवान को गर्भ में धारण की हुई देवकी को देखकर कंस के मन में सदबुद्धि आ गयी और वह बोला कि अरे यह तो स्त्री है, मेरी बहिन है, गर्भवती है।इसको मारूँगा तो मुझ पर थूकेंगे! मेरी बड़ी निन्दा होगी।इसलिये इस समय इसको मारना उचित नहीं है।
इसके बाद कंस प्रतीक्षा करने लगा हर समय कृष्ण-कृष्ण का ही दर्शन होने लगा। ऐसे करके वह कृष्णमय हो गया, तन्मय हो गया।
अब सब देवता ब्रह्मा,रुद्र,इन्द्र आदि सब देवता कारागार में आ गये और स्तुति करने लगे।
इस प्रकार देवताओं ने भगवान और देवकी माता की स्तुति की ।
जब समय निकट आया तब ब्रह्मा और शंकर ने कहा देवताओं अब चलो फिर जब वो निकले देवता भी पीछे बाद में वहाँ से निकल गये।
अन्त में जब भगवान के जन्म का समय उपस्थित हुआ तब शुकदेव जी ने उसका बड़ा सुन्दर वर्णन किया।आप भी उनके मूल श्लोकों का रसास्वादन कीजिये:–
श्रीशुक उवाच
अथ सर्वगुणोपेत: काल: परमशोभन: ।
यर्ह्येवाजनजन्मक्षन शान्तर्क्षग्रहतारकम् ॥ १ ॥
दिश: प्रसेदुर्गगनं निर्मलोडुगणोदयम् ।
मही मङ्गलभूयिष्ठपुरग्रामव्रजाकरा ॥ २ ॥
नद्य: प्रसन्नसलिला ह्रदा जलरुहश्रिय: ।
द्विजालिकुलसन्नादस्तवका वनराजय: ॥ ३ ॥
ववौ वायु: सुखस्पर्श: पुण्यगन्धवह: शुचि: ।
अग्नयश्च द्विजातीनां शान्तास्तत्र समिन्धत ॥ ४ ॥
श्री मद्ब० (१०-३-१-४)
श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! अब समस्त शुभ गुणों से युक्त बहुत सुहावना समय आया। रोहिणी नक्षत्र था। आकाश के सभी नक्षत्र, ग्रह और तारे शान्त-सौम्य हो रहे थे[1], दिशाऐं स्वच्छ, प्रसन्न थीं। निर्मल आकाश में तारे जगमगा रहे थे। पृथ्वी के बड़े-बड़े नगर, छोटे-छोटे गाँव, अहीरों की बस्तियाँ और हीरे आदि की खानें मंगलमय हो रहीं थीं[2]। नदियों का जल निर्मल हो गया था। रात्रि के समय भी सरोवरों में कमल खिल रहे थे। वन में वृक्षों की पत्तियाँ रंग-बिरंगे पुष्पों के गुच्छों से लद गयीं थीं। कहीं पक्षी चहक रहे थे, तो कहीं भौंरे गुनगुना रहे थे[3]। उस समय परम पवित्र और शीतल-मंद-सुगन्ध वायु अपने स्पर्श से लोगों को सुखदान करती हुई बह रही थी। ब्राह्मणों के अग्निहोत्र की कभी न बुझने वाली अग्नियाँ जो कंस के अत्याचार से बुझ गयीं थीं, वे इस समय अपने-आप जल उठीं[4]।

श्री शुकदेव जी महाराज कहते हैं कि परीक्षित,सारी प्रकृति वासक नायिका के समान सजधज गयी। उसकी भूत- शुद्धि हो गयी।वह सज-सँवरकर भगवान के स्वागत के लिये उन्मुख हो गयी।
भगवान प्रकट हो गये।वसुदेव के आनन्द की सीमा नहीं रही फिर आनन्द से उनकी आँखें खिल उठी। उनका रोम-रोम परमानन्द में मग्न हो गया उन्होंने उसी समय ब्राह्मणों के लिए दस हज़ार गायों का संकल्प कर दिया।
वसुदेव बोले अद्भुत है ये बालक !कमल के समान खुली-खुली आँखे, यह तो चतुर्भुज है! हाथों में शंख-चक्र-गदा,पदम है और यह समग्र आभूषणों से आभूषित हैं,जब उन्होंने उस बालक को देखा उनका सिर झुक गया,हाथ जुड़ गये और वसुदेव जी ने स्तुति की।
देवकी की आँखें खुली और उन्होंने भी साक्षात भगवान के दर्शन किये फिर देवकी जी ने भी उनकी स्तुति की।भगवान ने कहा तुम लोगों ने पूर्व जन्मों में मेरे लिये बड़ी तपस्या की थी, जब मैं वर देने के लिये तुम्हारे सामने आया तब तुम लोगों ने मेरे जैसा पुत्र माँगा।लेकिन मेरे जैसा तो दुनिया में कोई है नहीं, फिर मैं अपने समान पुत्र कहाँ से देता इसलिये मैं ही तुम लोगों का पुत्र बन प्रकट हुआ। इसके बाद भगवान ने देवकी-वसुदेव को यह प्रेरणा कर दी अब मुझको गोकुल ले चलो।(भागवतामृत)

इस प्रकार भगवान का प्राकटय हुआ ।
बोलो हाथी,घोड़ा पालकी जय कन्हैया लाल की।

भगवान के प्राकट्य की हार्दिक बधाई।💐🎈

श्री राधे🙏

प्रबोधसुधा वर्षण

सगुण मानने से ब्रह्म सीमित नहीं होता।

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ।।

यह लेख अपने पूज्य गुरुदेव स्वामी श्री प्रबोधानन्द जी महाराज के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ और धन्यवाद करती हूँ अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी का जिन्होंने मुझको यह विषय समझाया है,जिसको इस लेख में लिखा गया है।

दादा बताते हैं: भगवान ने सबको स्वतंत्र इच्छा शक्ति दी है जो निर्गुण उपासक हो वो निर्गुण को माने,वो सगुण उपासक हैं वो सगुण को माने ।दोनों उसी के रूप है पर वेदांत ग्रंथ में अद्वैत की भावना होती हैं वहाँ वो अवतारवाद आदि को मानते नहीं हैं अब भगवान कृष्ण तो पूर्ण पुरुषोत्तम है ,अखंड है,अनादि है असीम है। गोविन्दम् आदि पुरुषं तम् अहं भजामि।ब्रम्ह संहिता। अब मानो एक आम का बहुत बड़ा पेड़ है उसमें से तना काट कर मेज बना दी जाय तो आम से अलग होकर मेज सीमित हो गयी ऐसे करके कोई लोग तर्क करते हैं अलग उस ब्रह्म को,सर्वोच्च सत्ता को एक देह में सीमित कर देंगे तो उसका जो असीमपना है वो बाधित हो जाता है।एक तमिलनाडु में सन्त हुए हैं वो भी अद्वैत वेदांत को मानने वाले थे उनका एक दृष्टिकोण हओ तो वो कहते हैं जैसे एक व्यक्ति है सीमित है उसने अपनी मन और बुद्धि के अनुसार भगवान को सीमित कर दिया ये दृष्टिकोण ठीक नहीं है,व्यक्ति ने जो कल्पना कर रखी है मैं ये हूँ,मैं वो हूँ ये तो जब देह में व्यक्ति की मैं बुद्धि कट जाती है और अगर इस बात कोई भी व्यक्ति सही समझ जायें तो वो अपने को असीम मानेगा तो क्या वो किसी और को सीमित मानेगा? नहीं उसकी नजर में फिर सब असीम ही होगा भगवान भी उनके अवतार भी और भगवान का अवतार कोई साधारण नहीं होता है ।गीता में भगवान कहते है ।अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।।7.24।बुद्धिहीन मनुष्य मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी परमभावको न जानते हुए अव्यक्त (मनइन्द्रियोंसे पर) मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्माको मनुष्यकी तरह ही शरीर धारण करनेवाला मानते हैं।7.24।।भगवान ने अपना संपूर्ण ज्ञान जो कुछ भी है जीव को दिया है और स्वतन्त्रता दे दी है खूब समझ लो उसके बाद जो ठीक लगे वो तुम करो। इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।18.63।।यह गुह्यसे भी गुह्यतर (शरणागतिरूप) ज्ञान मैंने तुझे कह दिया। अब तू इसपर अच्छी तरहसे विचार करके जैसा चाहता है? वैसा कर।18.63।।

उन सन्त ने कहा जो असीम है, निर्गुण है,अखंड है,अनंत है भक्तों पर कृपा करने के लिये सगुण रूप धारण कर लेता है अन्यथा भगवान की महिमा घट जायेगी। हरि व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम ते प्रकट होहिं मैं जाना।देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥भावार्थ-मैं तो यह जानता हूँ कि भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं, प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं, देश, काल, दिशा, विदिशा में बताओ, ऐसी जगह कहाँ है, जहाँ प्रभु न हों।अगर भगवान भक्तों के दुख परेशानी को समस्याओं को ना देखें तो ऐसा परमात्मा किस दीन का? कृपा की जो होती ना आदत तुम्हारी तो सूनी ही रहती अदालत तुम्हारी।इसलिये कुछ आचार्यों ने माना है कि ये ब्रह्म भक्तों पर कृपा करने,उनका दुख दर्द समझने,उनकी सहायता करने,अपना बोध कराने के लिये, वो सर्वशक्तिमान है अपनी शक्ति का परिचय कराने के लिये को सगुण रूप में प्रकट होता है।वो किसी भी रूप में,किसी भी काल में,किसी भी परिस्थिति में,किसी भी देश में प्रकट होके आ सकते हैं उनमें सामर्थ्य है और तब भी वो असीम ही रहते हैं।अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।।7.24।बुद्धिहीन मनुष्य मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी परमभावको न जानते हुए अव्यक्त (मनइन्द्रियोंसे पर) मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्माको मनुष्यकी तरह ही शरीर धारण करनेवाला मानते हैं।7.24।। नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।7.25।।जो मूढ़ मनुष्य मेरेको अज और अविनाशी ठीक तरहसे नहीं जानते (मानते) उन सबके सामने योगमायासे अच्छी तरहसे आवृत हुआ मैं प्रकट नहीं होता।।।7.25।।व्यक्ति देह में मैं बुद्धि करके अपने निर्णय करता है और भगवान को भी सीमित कर देता है।

तमिल सन्त का कहना है आप भगवान के साथ तीन व्यवहार जरूर करो। 1. राग 2.श्रिंगार 3.भोग। अगर आपको भक्ति करनी है,प्रेम करना है ,सगुण-निर्गुण दोनों को सही-सही रूप से जानना है तो ये तीन व्यवहार भगवान से करने पर सगुण-निर्गुण जैसा है वैसा समझ आने लगेगा। उन सन्त ने श्रिंगार पर ज्यादा जोर दिया जब भक्त भगवान को सजाता है तब भगवान उसके हृदय में आते हैं, तब कल्पना करता है ऐसे सजायेंगे,ये मोरपंख लगायेंगे,कान के पीछे फूल लगायेंगे,कोशिश करता है भगवान सुन्दर से सुन्दर लगें, ऐसे भगवान उसके पहले हृदय में आते हैं जब सजाने के बाद वो श्रिंगार का जब अवलोकन करता है कि प्रभु कैसे लग रहे हैं तो भक्त भगवान की तरफ आकर्षित होता है और कहता है क्या लग रहे हो आज, दिने दिने नवं नवं।उस वक्त भगवान अच्छे लग रहे होते हैं ये स्थिति परमात्मा की तरफ से आती है,भगवान फिर भक्त की तरफ आकर्षित होते हैं वो भक्त के हृदय रूपी आईने में अपने को देखते हैं।

अब बात करते हैं भोग की ,जब भगवान को भोग लगता है तो प्रभु तो सर्वेश्वर हैं,सर्वज्ञ हैं,अन्तर्यामी हैं और पूर्णकाम हैं अर्थात कोई कामना नहीं है,पूर्ण तृप्ति है उनको लेकिन फिर भी भक्त उनकी तरफ आकर्षित होकर भोग लगाता है जैसे एक छोटा सा बच्चा है उसके पिता ने उसको टॉफी लाके दी है वो पैकिट खोलता है अपने पिता के मुख में डाल देता है तो क्या पिता को उसकी टॉफी चाहिये क्या ? वो तो प्रेमवश खा लेते हैं और द्रवित हो जाते हैं और मुस्कुरा देते हैं ,भगवान को जगतपिता हैं ऐसे ही भक्त जब भगवान को भोग लगाता है तो भगवान उसके हृदय में आकर जरूर बैठते हैं जब वो प्रार्थना करता है भगवान के हृदय में भक्त बैठ जाता है,भगवान आकर्षित हो जाते हैं।

तीसरा होता है राग यानि संगीत से प्रभु को रिझाना, जिसने उसको पाया उसने गाया। भजन ,कीर्तन जब गाने बैठते है तो वो रूप,गुण, प्रभु पहले हृदय में आते हैं फिर भजन और कीर्तन गाया तो पहले भगवान भक्त के हृदय में आये और फिर भगवान के हृदय में भक्त आके बैठ जाता है। स्वामी विवेकानंद जी भी अद्वैत वेदांत को मानने वाले थे पर वो भी राग बहुत करते,बहुत सुन्दर गाते ,जब पहली बार वो रामकृष्ण परमहंस जी से मिले तो उन्होंने उनको गाने को बोला जैसे ही उन्होंने गाया रामकृष्ण परमहंस जी समाधि लग गयी,तबसे उनको रोज आने को बोला और वो नरेंद्र से वो स्वामी विवेकानंद हो गये ।

हमारे गुरुदेव हमको बताते : “सगुण उपासक को निर्गुण का ज्ञान सहज ही हो जाता है निर्गुण को सगुण भक्ति का होना सहज नहीं होता।”

रामचरित मानस में आता है: निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोई। सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होई॥ 73 ख॥  निर्गुण रूप अत्यंत सुलभ (सहज ही समझ में आ जाने वाला) है, परंतु (गुणातीत दिव्य) सगुण रूप को कोई नहीं जानता, इसलिए उन सगुण भगवान के अनेक प्रकार के सुगम और अगम चरित्रों को सुनकर मुनियों के भी मन को भ्रम हो जाता है॥ 73 (ख)॥  जिसको जो कोई मार्ग अच्छा लगे पर सम्बन्ध भगवान से हो नाते नेह राम के मनियत। राम जी के नाते से कैसे भी कोई भी सम्बन्ध बनायें सब ठीक है ।जिसकी रुचि, योग्यता, विश्वास निर्गुणमें है, उसके लिये निर्गुणरूप सुलभ है । जिसकी रुचि, विश्वास, योग्यता सगुणमें है, उसके लिये सगुण सुलभ है ।एक रूपकी प्राप्ति होनेपर दोनोंकी ही प्राप्ति हो जाती है, फिर कोई-सा भी रूप जानना बाकी नहीं रहता; क्योंकि दोनोंका तत्त्व एक ही है और असीम हैं।

श्री राधे🙏

प्रबोधसुधा वर्षण

क्या सत्य क्या मिथ्या

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ।।

यह लेख अपने गुरुदेव के श्री चरणों में समर्पित करती हूँ और धन्यवाद करती हूँ अपने दादा श्री विनय उपाध्याय जी का जिन्होंने मुझको यह विषय समझाया हैं।

हमने अपने दादा से पूछा: याज्ञवल्क्य जी कहते हैं जो दिख रहा है वो भी सत्य और सपने में जो दिख रहा है वो भी सत्य पर अष्टावक्र जी जनक जी से कहते हैं न यह जगत सत्य, न स्वप्न में दिखने वाला जगत सत्य तो ऐसे कैसे?

अगर यह प्रसंग आपने नहीं सुन तो बताते हैं:एक दिन राजा जनक अपने महल में शयन कर रहे थे।उन्हें स्वप्न हुआ,अद्भुत स्वप्न!वे एक दीन-हीन भिक्षुक हैं।तीन दिन से कुछ खाने पीने को नहीं मिला।कहीं से किसी पात्र में किसी प्रकार दाल-चावल मिले।मृतिका पात्र में पकाने लगे ।उसी समय लड़ते हुए दो बैल वहाँ आये और वह खिचड़ी नष्ट-भ्रष्ट हो गयी। नींद टूट गयी और स्वप्न के दृश्य अदृश्य हो गये।महल,पलंग,रात्रि का सुख- शयन सब ज्यों-का-त्यों मिला।अब प्रश्न उठा ‘यह सत्य कि वह सत्य’ अब इसका कोई समाधान नहीं कर पाया तब अष्टावक्र जी ने कहा ‘ न यह सत्य न वह सत्य।(अष्टावक्र गीता)

दादा बताते हैं:तीन सत्तायें मानी गयी हैं व्यवहारिक सत्ता,प्रतिभासिक सत्ता और परमार्थिक सत्ता।जगत हैं व्यवहार की सत्ता,स्वप्न है प्रतिभासिक सत्ता और स्वप्न, जाग्रत दोनों ही जिस अधिष्ठान में अध्यस्त हैं, वह अपना आत्मा हैं वही सत्य का सत्य हैं इसको परमार्थिक सत्ता बोलेंगे।

अच्छा मानो आप किसी से बात कर रहे हो तो जो बोलने-सुनने की क्रिया हो रही है इसको आप सत्य मानेंगे या नहीं, मानेंगे।जब सपना देखते है तो वो भी सच्चा लगता है या नहीं,लगता है। अभी आप इस वक़्त ये लेख पढ़ रहे हो ये सच्चा लगता है या नहीं,सच्चा ही प्रतीत हो रहा है।व्यवहार में जो बात हो रही है वो भी सत्य है और सपने में जो महसूस करते हैं वो भी सत्य है।सपने को बोलते हैं प्रतिभास, तो व्यवहार भी सत्य और प्रतिभास भी सत्य अगर विचार काल करें इसमें जो घटनायें सच हैं,जगत सच है,स्वप्न सच है या आप सच हैं तो पता चलेगा। एक होता है असली चेतन,एक होता है नकली चेतन तो इस नकली चेतन को ही सविषय चेतन कहते हैं।तो वही सविषय चेतन स्वप्न में भी रहता है,जाग्रत में तो रहता ही है और जब आँखों से ज्ञान नहीं हो रहा होता है उसको प्रतिभास बोल देते हैं ,जहाँ आभास चेतन होता है उसको अपना भी भान होता है और संसार का भी भान होता है, ये व्यवहारिक है आभास चेतन है ये दोनों सत्य नहीं है वो उसको सुषुप्ति काल में घटा देते हैं क्योंकि सुषुप्ति काल में दोनों ही नहीं रहते हैं और ये दोनों मिथ्या सिद्ध हो जाते हैं,मानो आपको गहरी नींद आ जाये,सुषुप्ति काल हो गया अब बताओ उसमें क्या सच? ना तो जगत दिखेगा, ना स्वप्न तो सुषुप्ति काल में जो अज्ञान है ना वो सत्य है,उससे आगे बढ़ जायें और परमात्मा की दृष्टि से जगत क्या है तो जगत मिथ्या सिद्ध होगा,स्वप्न मिथ्या सिद्ध होगा,सुषुप्ति मिथ्या सिद्ध होगा उसको असत्य नहीं कह सकते मिथ्या बोलेंगे ।सत्य और असत्य के बीच की अवस्था होती है उसको मिथ्या बोलेंगे।तो ना जाग्रत सत्य है, ना स्वप्न सत्य है, ना सुषुप्ति सत्य है, सत्य केवल परमात्मा है।हमारी सत्ता से असली मैं के मुकाबले से तुलना की जाय तो जाग्रत,स्वप्न और सुषुप्ति मिथ्या ही होंगे और परमात्मा वो ही सच्चिदानंद है,जो हमेशा एक समान है वो ही सत्य हैं।

ऐसे ही एक बार हमने दादा से पूछा था ये संसार भ्रम है पर हमको सत्य क्यों प्रतीत होता है? दादा ने बताया:ये संसार कहीं बाहर नहीं हमारे मन में दिखायी देता है,मन में ही संसार बसा हुआ है,संसार की सत्यता को मन देता है।झूठी चीज तो झूठी चीज को ही दिखायेगी ये भ्रम सत्य दिखायी देता है हमको। वेदान्त के शब्दों में बोलेंगे दृश्य बदलने वाला है और जो देखने वाला वह कभी बदलने वाला नहीं है।एक होता है सत्य जिसका तीनों काल में कभी अभाव नहीं होता,जिसमें कभी परिवर्तन हो नहीं सकता।एक होता है असत्य जो तीनों काल में होता ही नहीं है जैसे कोई कहे बांझ के बेटे ने फलाने को गोली मार दी, ये असत्य है बांझ के बेटा कहाँ से होगा ।अब इन दोनों के बीच एक की अवस्था होती है जिसको ना सत्य कह सकते ना असत्य ।संसार कैसा है सत्य भी नहीं है क्योंकि परमात्मा सत्य है ,असत्य भी नहीं है क्योंकि दिखायी दे रहा है तो कह देंगे मिथ्या है यानि जो वास्तविक है उसको हम नहीं जानते है और जो अवास्तविक है उसको हमने मान लिया है इसी को भ्रम या मिथ्या बोलेंगे।भक्ति सिद्धांत में बोलेंगे सब रूपों में परमात्मा है,सबमें परमात्मा है तो सब झूठा,सब परमात्मा है।सबके अंदर सांई रमता, कटुक वचन मत बोल रे॥कबीर । सोना सच्चा है और जो आभूषण दिखायी दे रहे हैं वो काल्पनिक हैं सोने के बने सौ आभूषण हैं वो आकृति हैं वो काल्पनिक हैं ,सोना है वो वास्तविक है इस दृष्टिकोण से देखना चाहिये ऐसे ही संसार का जो आधार अधिष्ठान है वो परमात्मा है वो सच्चा है और उसमें जो आकृति दिखायी दे रही है वो काल्पनिक।जो सत्य है परमात्मा उसको भूल गये और जगत को सच मानने लगे।मन में दिखायी पड़ा और मन झूठा है क्योंकि सत्य आत्मा है और झूठी छाया है तो मन झूठा सिद्ध होगा।असत्य असत्य को देखेगा और सत्य सत्य को।जो सम्बन्ध है वो परमात्मा के नाते से है तो संसार भ्रम नहीं दिखायी देगा सब परमात्मा ही दिखायी देगा बुद्धि से जुड़ गये तो परमात्मा झूठा दिखायी देगा और संसार सत्य दिखायी देगा ये दोनों ही भ्रम है।रा॰च॰मा॰/श्लोक 6
यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्।। भावार्थ:-जिनकी माया के वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्ता से रस्सी में सर्प के भ्रम की भाँति यह सारा दृश्य जगत्‌ सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके केवल चरण ही भवसागर से तरने की इच्छा वालों के लिए एकमात्र नौका हैं, उन समस्त कारणों से पर (सब कारणों के कारण और सबसे श्रेष्ठ) राम कहलाने वाले भगवान हरि की मैं वंदना करता हूँ॥6॥जिसकी सत्ता से ये संसार भी सत्य दिखायी देता है इसी को भगवान की माया कहते हैं माया का अर्थ अपने को सही ना जानना,मन को ही मैं मान लेना ये ही माया है। हमारे गुरुदेव कहा करते थे :
यह संसार स्वप्न वत मिथ्या,मनो मात्र बतलाईये
मन अभाव कहाँ हैं दुनिया ये हमको दिखलाईयेविचारसागर
तो मन का अभाव करो तो दुनिया नहीं है तो कौन है परमात्मा ही तो है। जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥116.4॥भावार्थ:-यह जगत प्रकाश्य है और श्री रामचन्द्रजी इसके प्रकाशक हैं। वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं। जिनकी सत्ता से, मोह की सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य सी भासित होती है॥4॥ ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्रा न सत्तन्नासदुच्यते ।।13.12।।जो जानने योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्द को प्राप्त होता है, उसको भलीभाँति कहूँगा। वह अनादिवाला परमब्रह्म न सत् ही कहा जाता है, न असत् ही ।।12।।वो सत-असत से भी परे है।

भक्ति ग्रंथ वो परमात्मा को सत्य बताते हैं कभी ये नहीं कहते हैं कि परमात्मा हैं कि नहीं।वो है सत्य, उसी सत्य से ये जगत सत्य प्रतीत होता है।वेदान्त में कहते हैं जगत है वो असत नहीं है। दोनों बात एक ही है,वो जगत को असत्य नहीं कहते हैं। भक्ति ग्रंथ कहते हैं परमात्मा का असत होना संभव नहीं है इसको जो समझने वाला है परमात्मा और जगत के बीच में खड़ा हो गया है वो ही झूठा है ।परमात्मा ही संसार बना और उसी की सत्ता से जो बीच में खड़ा हुआ वो बना वो भूल जाता है मैं पना जोड़ लेता है पर परमात्मा कभी नहीं भूलता। हमारा कर्तव्य केवल इतना है कि हम मन का वाद करें नाकि जगत का।

अष्टावक्र जी जनक जी को कहते हैं वो परम चैतन्य तत्व आप ही हो बाकि सब मिथ्या,ये सत् अधिष्ठान और चित् प्रकाश दोनों एक ही हैं। शंकराचार्य ब्रह्मसूत्र में बताते हैं :ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या जीवोब्रमैहव नापरह, अर्थात् ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या है तथा जीव ही ब्रह्म है अन्य कोई नहीं है।जीव ईश्वर से अभिन्न है।स्वप्न कोई हमारे से अलग चीज नहीं है,उसका साक्षी भी मैं ही होता हूँ,जागृत का भी साक्षी मैं ही होता हूँ।मैं के बिना ना तो ना सुषुप्ति हो सकती है,ना स्वप्न होगा,ना जागृत होगा,ना जगत होगा ना जीव होगा,परमात्मा की सिद्धि आप से ही होती है वो अभिन्न है ।माया से ही दिख रहा होता है मैं जग रहा हूँ।ना परमात्मा आपसे भिन्न हो सकता है,ना आपका आत्मा आपसे भिन्न है,ना ये अवस्थाएँ आपसे भिन्न है,ये ही सर्वव्यापी आत्मा है ये ही परमात्मा है।

श्री राधे

प्रबोधसुधा वर्षण